जनाब मकबूलजी,
आप बीच-बीच में कहां
गायब हो जाते हैं. इतना इमोशनल अत्याचार वाजिब नहीं। खैर आपने मेरी ग़ज़ल की तारीफ
की शुक्रिया। आपने भी जयपुरीजी को बड़ी शिद्दत से याद किया है। बजरिए इन शेरों के-
ऐ
दोस्त, मुझे गर्दिसे- हालात ने घेरा
तू ज़ुल्फ़ की कमली में छुपाने के लिए आ।
दीवार है दुनिया, इसे राहों से हटा दे
हर रस्म मुहब्बत की मिटाने के लिए आ।
मतलब तेरी आमद से है, दरमाँ से नहीं
हसरत की क़सम, दिल ही दुखाने के लिए आ।
मृगेन्द्र मक़बूल
तू ज़ुल्फ़ की कमली में छुपाने के लिए आ।
दीवार है दुनिया, इसे राहों से हटा दे
हर रस्म मुहब्बत की मिटाने के लिए आ।
मतलब तेरी आमद से है, दरमाँ से नहीं
हसरत की क़सम, दिल ही दुखाने के लिए आ।
मृगेन्द्र मक़बूल
मेरे
पालागन।
पंडित
सुरेश नीरव
श्री श्री108 प्रशांत योगीजी |
श्री
प्रशांत योगीजी,
आपका
प्रवचन ध्यान पूर्वक पढ़ा। आनंद आ गया। सच ही कहा है आपने कि धर्म मुखौटा है जोकि
मनुष्यता के बीच आकर इंसान को इंसान से अलग कर देता है। इतिहास में जितनी भी क्रूर
हत्याएं हुई हैं वह धर्म के ही नाम से हुई हैं। ईश्वर ने हम सभी को मनुष्य बनाया है।
हिंदू-मुसमान तो हम खुद बन जाते हैं। आपके श्रेष्ठ विचारों को नमन।
पंडित
सुरेश नीरव
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