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Wednesday, July 4, 2012

अपनी अपेक्षाओं को मरता देख बर्दाश्त कर पायेंगे।



बात १९९०-९१ कि है मैं ददरौल शाहजहांपुर में टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल के हास्टल में रहता था।घोर अभावों वाला जीवन था।कई बार तो सुबह दोपहर शाम विद्यार्थियों का राष्ट्रीय भोजन खिचडी ही आनंद-पूर्वक बनाया जाता था और खाया जाता था।उन संघर्षों के दिनों में एक दिन दोपहर बाद हमारे रूम मेट जयशंकर शुक्ला एक नाटे कद और साफ रंग लडके को लेकर आये ।मेरी और उसकी आयु में साल दो साल का ही फर्क रहा होगा।जयशंकर शुक्ला ने बताया कि ये बेचारा वक्त का मारा है बचपन में इसकी शादी हो गयी थी ।जाति से अहीर है,बी०काम० प्रीवियस में फेल हो गया था।पिता ने घर से निकाल दिया था।शाहजहांपुर कलक्ट्रेट मे अशोक कुमार ध्रुव एडवोकेट के पास मुंशी गिरी कर कुछ जेबखर्च निकाल लेता है।
जयशंकर शुक्ल का वह उन दिनों का मित्र था जब वे दोनो आर्डिनेंस क्लोदिंग फैक्ट्री शाहजहांपुर में टेलरिंग की ट्रेनिंग ले रहे थे।हमने सोचा चलो दो से भले तीन और ये हमारे नये मित्र भोजन,वस्त्र और साइकिल का साधिकार उपयोग करने लगे।३-४ महीने बीत गये।एक दिन क्लासेज कुछ देर से छूटी ।भूख से बिलबिला रहे हम दोनो मित्रों ज़ल्दी से हीटर(चूंकि कटिया डालकर बिजली जलाना मिट्टी के तेल से सस्ता,और सुविधाजनक था)पर खिचडी चढा।एक बार और स्नान करने चले गये।फटाफट लौटे तो पाया कि अपने नये मित्र भी आ कर आराम फरमा रहे हैं।ज़ल्दी से कुकर का ढक्कन खोला और थालियों में पलट कर शुरू हो गये।दो तीन ग्रास ही उदर में गये होंगे कि हमारे परज़ीवी मित्र ने कहा----"दद्दू तुमने रूखी खिचरी खबाय खबाय मार डारो।"क्रोध से थाली झपटकर खींच ली और कहा--साले हम तो घी चुप डी खा रहे हैं और तुझे रूखी खिला रहे हैं।एक पल में मित्र के चेहरे पर लाखों भआव आये गये और शीघ्र ही वही चिरपरिचित मुस्कान--"अरे दद्दू आप तो नाराज हुइ गये।"जा बेटा अब ये भी नही मिलेगी।"सारे हास्टल कैम्पस में थाली हाथ में लिये मैं आगे-आगे और मित्र महोदय पीछे-पीछे।
इस घटना के कुछ दिन बाद ही वह शाहजहांपुर नगर में किसी अन्य मित्र के साथ रहने चला गया।हम भी ज़िंदगी के संघर्षों में व्यस्त हो गये।हमारे उस मित्र को रंगकर्म का शौक था।उसके अभिनय की बातें कभी कभार सुनने को मिलती थीं पर वे इतने कठिनाइयों के दिन थे कि कभी उससे मिलने या उसका कोई नाटक देखने की सोच भी नहीं पाये।१९९४ में मैं दिल्ली आ गया और इस बीच पता लगा कोरोनेशन,भारतेंदू नाट्य अकादमी होता हुआ हमारा वह मित्र एन एस डी तक पहुंच गया।इस बीच हमारे कामन फ्रेंड जयशंकर शुक्ल ने कहा कभी उस मित्र से भी मिल लेना पर वह अवसर कभी नहीं आया और अपनी मेहनत ,लगन और शायद कुछ भाग्यवश भी हमारा वह मित्र परीकथाओं सी सफलता हासिल करता हुआ बालीवुड के  टाप कामेडियन कलाकारों में शूमार हो गया।जब भी जयशंकर शुक्ल से मुलाकात होती अपने उस कामन फ्रेंड की बात ज़रूर होती।शायद एक बार शाहजहांपुर आने पर उसने जयशंकर से मुलाकात भी की थी।बहरहाल जयशंकर ने मुझे उसका नंबर दिया कि कभी मुंबई जाओ तो मुलाकात कर लेना या वैसे कभी बात कर लेना।
एक दिन यों ही बैठै-बैठै सोचा बात करते हैं फोन लगाया बेल गई पर नहीं उठा फिर कई बार काल किया ।नो रिसपांस।फिर एस एम एस किया भाई आपसे आपके शहर को बडी आशायें हैं जिस मिट्टी में पले बढे हो कुछ उसके लिये भी करो।फिर नो रिसपांस।फिर एक दिन जाने किस मूड में एस एम एस किया तुम भी साले एहसान फरामोश निकले--।तुरंत काल आया।ॗ---"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे गाली देने की? मैं क्या कोई एम०पी० ,एम०एल० ए० हूं,मेरे लिये मेरे शहर ने क्या किया?जो कुछ बना हूं अपनी मेहनत से बना हूं।और तुम हो कौन ?"
"मैं तो भाई एक गुमनाम लेखक और मामूली अध्यापक हूं पर आपकी तरह से ही शाहजहांपुर से हूं,आपसे शहर को बडी उम्मीदे हैं।"
"मैने शाहजहांपुर के लिये क्या किया तुम्हें क्यों बताऊं,और तुम मुझे गाली कैसे दे सकते हो।अब मेरे सब्र का पैमाना भी छलक गया।
"जा दे दी गाली जो तेरे से बन पडे उखाड लेना साले ----"
इस घटना क्रम के बाद खूब सोचा गलती कहां हुई--
क्या किसी सफल व्यक्ति से ये आशा करना कि वह अपने क्षेत्र के लिये कुछ करे गलत है।
क्या अपने क्षेत्र के लिये कुछ करना केवल सांसदों और मंत्रियों का दायित्व है?शायद मैं स्वयं इतना सफल नहीं हूं अतः ऐसा सोचता हूं।आज वह फिल्म स्टार शहर में आता है तो लोग सिर आंखों पर बिठा लेते हैं ।हो सकता है कुछ बरस बाद वहां से इलेक्शन लडकर सांसद भी बन जाये पर --क्या फेसबुक पर उसे टैग और शैयर करने वाले तमाम लोग विशेष रूप से शाहजहांपुर के लोग अपनी अपेक्षाओं को मरता देख बर्दाश्त कर पायेंगे।

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