दोस्तों गजल की बारीकियो का जो भयावह चित्र उस्तादों द्वारा खींचा जाता है उसके चलते हमने कभी गजलगो बनने की कोशिश ही नहीं की .मजे के लिए कुछ तुकबंदी की हैं सो हाज़िर हैं पर इतना तो आप भी मानेंगे की जो आजकल हर ----ग़ज़ल लिख रहा है उस से तो मेरी यह कोशिश बेहतर ही है -------------------------
उसका ही नहीं है ज़िक्र इस सारे फसाने में
लगा दी जिसने सारी उम्र हमको आज़माने में
सभी हसबैंड हैं मसरूफ बीबी को मनाने में
मज़नूं सब लगे हैं अपनी लैला को रिझाने में
जिसको भी लगाओ फोन वह इंगेज़ मिलता है
हमीं हैं फालतू ,लगता है, इस सारे ज़माने में
जब से हुस्न वाले अनसुना करने लगे हमको
हम भी लग गये हैं बाल सब रंगने रंगाने में
बामुश्किल छः महीने की ज़न्नत बाद दोज़ख है
फादर बन के वह मसरूफ है धोने धुलाने में
महंगी हो गयी दारू ,सोडा और पानी भी
मज़ा आता नही है, यार अब पीने पिलाने में
गज़ल कह लो,हज़ल कह लो, या कह लो महज़ तुकबंदी
मज़ा आता है सच पूछो तो बस तुमको सुनाने में
अजी क्यों गिन रहे हो गुठलियों को इतनी शिद्दत से
मज़ा आता नहीं क्या आपको बस 'आम'' खाने में
जिसको गालियां दे दीं मिनिस्टर बन गया वह ही
'पथिक' हर्ज़ा नहीं कुछ भी विधायक को बताने में
---------------------अरविंद पथिक
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