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Thursday, September 20, 2012

जनाब मुज़फ़्फ़र रज़मी की याद में-


जनाब मुज़फ़्फ़र रज़मी की याद में-
एक शेर एक तारीख़
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
कैराना,मुजफ़्फ़र नगर(उत्तरप्रदेश) के छोटे से कस्बे में जन्मे जनाब मुज़फ़्फ़र रज़मी यूं तो 18 साल की अम्र से ही मुशायरे पढ़ने लगे थे मगर उनके एक शेर ने उन्हें सरहदों के पार तक इतना मकबूल कर दिया था कि काफी लोग उन्हें और उनके इस शेर को कभी साथ नहीं रख पाए। वो इस शेर को गालिब या मीर का समझते थे। और-तो-और श्रीमती इंदिरागांधी की शवयात्रा के समय कमेंट्री करते हुए महान साहित्यकार कमलेश्वर ने भी  उनका यह शेर किसी स्वर्गीय शायर का बताते हुए पढ़ दिया। कुछ दिनों बाद स्वर्गीय राजेन्द्र अवस्थी की एक पुस्तक लोकार्पण के अवसर पर उपराष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में मैंने रज़मी साहब की मुलाक़ात कमलेश्वरजी से कराई- कि ये हैं आपके वो स्वर्गीय शायर जिनका शेर आपने उस दिन पढ़ा था। कवि अरविंद पथिक भी उस वक्त मेरे साथ थे। हम लोग और जनाब मुज़फ़्फ़र रज़मी उसी दिन गोरखपुर से लौटे थे। आज के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इस आयोजन की सदारत की थी। बाद में उनका पूरा इंटरव्यू हमने कादम्बिनी मे उनकी इसी ग़ज़ल के साथ छापा। फिर नज़दीकियां इतनी बढ़ गईं कि उनकी पहली और आखिरी किताब भी हिंदी और उर्दू में हमने ही प्रेक्षा प्रकाशन से छापी। जिसकी भूमिका उन्होंने जिदपूर्वक मुझसे ही लिखवाई।  और फिर तमाम मुशायरों में और कविसम्मेलनें में वे हमारा साथ रहे। जहां वे ये कहना नहीं भूलते थे कि मुझे किताब की शक्ल में ठालनेवाले पंडित सुरेश नीरव के लिए मैं क्या कहूं...। एक सप्ताह पहले फोन पर मुझसे पूछा कि पंडितजी मुझे अमेरिका से एक प्रोग्राम का दावतनामा मिला है। क्या करूं जाऊं या नहीं। सितारे क्या कह रहे हैं मेरे। मैंने उनसे कहा कि मैं इसका जबाब आपको 17 सितंबर के बाद दूंगा। अभी आप अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दें। फिर बात नहीं हुई। कल फेसबुक पर सुकवि दीक्षित दनकौरी की पोस्ट से समाचार मिला कि रज़मी साहब नहीं रहे। वे अपने इस शेर के मुताबिक ही हम सब से रुखसत हो गए-
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाक़ी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा... मुज़फ़्फ़र रज़मी
मुज़फ़्फ़र रज़मी उन चंद बेशकीमती फडनकारों की फेहरिस्त के दर्जेअव्वल के शायर हैं जो हिंदुस्तान की सरजमीं की गंगा-जमुनी तहजीब को मिसरों की शक्ल में ताअम्र उतारते रहे। लफ्ज़ों इस सफीर को मेरे सैंकड़ों सलाम..
-पंडित सुरेश नीरव

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