स्वदेश स्वाभिमान की मोमबत्ती
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| पंडित सुरेश नीरव |
चलिए अगर ये मान भी लिया जाए कि शराबनोशी की ललित कला से हमें अंग्रेजों ने परिचित कराया। लेकिन जहरीली शराब पीकर जीवन का उत्सर्ग करने की तकनीक तो खालिस भारतीय ही मानी जाएगी। इस महत्वपूर्ण तकनीक के आविष्कार का सुयश तो हमारे स्वदेशी स्वाभिमान के खाते में ही दर्ज होगा। यह स्वदेशी स्वाभिमान ही तो हमारी संस्कृति का कालाधन है। जो कि तमाम विदेशी हमले झेलने के बावजूद हमारे आचरण की स्विसबैंक में आज भी सुरक्षित है। और आनेवाली असंख्य सदियों तक सुरक्षित रहेगा। ये कोई पाकिस्तान की सीमा चौकी थोड़े ही है जो कि नाटो के एक अदने से हमले में चर्र-चूं बोल जाए। कोई बात है जो मिटती हस्ती नहीं हमारी। हम संस्कृति के चौतरफा विदेशी हमलों के तूफानों में अपनी स्वदेश स्वाभिमान की मोमबत्ती जलाए रखने की तकनीक के महा हुनरबाज हैं। हमारे मुंह के दांतों के बंकर में छिपे विदेशी चुइंगम और टॉफियों के छापामार घुसपैठिए पेप्सी और कोक की शह पर पीजा-बर्गर की कितनी भी गोलाबारी करते रहें हमारे जबड़े के इंडियागेट में दिन-रात जलती राष्ट्रीयता की अमरज्योति कभी नहीं थरथराएगी। वह अकंप जलती रहेगी। कॉलगेटी टूथपेस्ट के गारे से मढ़ी दांतों की अभेद्य सुरक्षापंक्तियों को कौन विदेशी हमलावर भेद सकता है। हमारी दाढ़ी में तिनका भी पर नहीं मार सकता। क्योंकि हम चीन के बने सुपरसोनिक शेविंग ब्लेड से चेहरे के भूगोल पर उगी खरपतवार को झलक पाते ही नेस्तनाबूत कर देते हैं। इंसाफ की डगर पर चलते हुए हमारे डग कभी डगमगा नहीं सकते। रीबोक और एडीडास के भरोसेमंद जूते हमारे पैरों की हिफाजत के लिए पूरी चाकचौबंदी होशयारी के साथ हर वक्त मुस्तैद रहते हैं। हमारी तहजीब की कमीज़ हमेशा सफेद रहती है। एलजी की वाशिंग मशीन की धुलाई जिद्दी दागों की ऐसी धुनाई करती है कि दुर्दांत-से-दुर्दांत दाग सिर पर पैर रखकर ईमानदारी की तरह गायब हो जाता है।
पंडित सुरेश नीरव
(व्यंग्य संग्रह टोपीबहादुर से)
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