ठहरा ये जीवन साँसों के सफ़र में,मंसब ये जीवन शुकून के शहर में।
मिलती हैं जहाँ महज सहज फवतियाँ,
शवनम हि जिन्दगी जीने के पहर में।
लगते हैं जहाँ मेले तस्बीर बन,
मिटते हैं खुद ही, खुद के सदर में।
उतरी अंतस पर, शहनाज़ कलियाँ,
रौस के महफूज़ की अनस बहर में।
समंदर में लहरें, जब भंवर बनतीं,
सहेजती कस्ती, साहिल के जिगर में।
जब टूटती साँसों की डोर-ए-हंस,
बंद ये जीवन, कफ़न के शटर में।
भगवान सिंह हंस
No comments:
Post a Comment