भूमिका-
राम-तारा
मानवीय सरोकारों का
कबीर सत्य
पंडित सुरेश नीरव
गिरीश मिश्रा की दीर्घ
कथा रमा-तारा के प्रसंगवश मैं अपनी बाद शब्द के माध्यम से शुरू करता हूं। संभवतः
अभिव्यक्ति के जरिए शब्द और अर्थ के सुभग संयोग का शिव महोत्सव होता है-सृजन।
जिसमें सत्य और सुंदर पूरी शिद्दत के साथ शरीक होते हैं। फिर चाहे वह कहानी हो या
कविता। हैं यह सभी शब्द की साधना। शब्द की उपासना। शब्द जो चेतना के आकाश में हमेशा तैरते
रहते हैं। शब्द ही हमारा अस्तित्व है। हम शब्द में है और शब्द हम में है। यह शब्द
ही है जिससे विचार जन्मते हैं। यह विचार ही है जिससे हमारा व्यवहार बनता है। यह
व्यवहार ही है जिससे हमारा चरित्र बनता है। यह चरित्र ही है जो हमारी नियति
निर्धारित करता है।और यह नियति ही है जिससे हमारा सारा जीवन संचालित होता है।
यानीकि यह शब्द ही है जो हमारी जिंदगी का समग्र सत्य तय करता है। इस शब्द से जीवन ऐसे ही
निकलता है जैसे बीज से वृक्ष निकलता है। वृक्ष बीज की अनुभूति है। अनु यानी भीतर
और भूति यानि संपदा। तो अनुभूति का अर्थ हुआ-आंतरिक वैभव। इस तरह सारी अनुभूतियों
का प्रतिष्ठान है- शब्द। यह शब्द ही है जो रूपांतरित होता है मन में। वचन में। कर्म
में।यानीकि शब्द सहनीय भी है और कहनीय भी।व्यथनीय भी और कथनीय भी। यह शब्द ही
संकल्प है। और यह शब्द ही विकल्प है। आदर्श है। उसूल है। राम-तारा की कथा का
शब्दबीज है-श्रेष्ठता। जिसे कथा नायक तारकेश्वर हर हाल में बरकरार रखने की
जद्दोजहद में अहिर्निश लगा रहता है। यह श्रेष्ठता का भाव अजाने ही आदर्शवाद का
एक ऐसा शीषमहल रच देता है,जिससमें बैठे तारकेश्वर बाबू को परिवार के सदस्य देख तो
सकते हैं मगर छू नहीं पाते। अंतरंगता की वह गंध जो पारस्परिकता के सूत्रों को
पुष्ट-तुष्ट करती है वह इस अदृश्य कांच की दीवार को उलांघ नहीं पाती है। और एक
गंधहीन जड़ता के ऑक्टोपसी गिरफ्त में परिवार का हर सदस्य जकड़ने लगता है। परिवार
में रहकर भी एक सार्वजनिक एकांत का सन्नाटा सभी को अपनी बेड़ियों में बांधने लगता
है। और ये तब जबकि तारकेश्वर परिवार के हर सदस्य,समाज के हर परिचित को वो सारे सुख
मुहैया कराते रहे हैं जो उनकी जद में थे। सभी को संतुष्ट करने की इस चाह पर ही
एडवर्ड एजेनू कहते हैं कि दूसरों की नज़रं मे हमेशा हद से ज्यादा भले बने रहने की
लालसा इस बात का इशारा है कि हमने अपनी इच्छाओं का ठीक से सम्मान करना नहीं सीखा
है। यकीनन श्रेष्ठता का जो संवेग है उसे प्रशंसा का उत्प्रेरक और गाढ़ा कर देता
है। तारकेश्वर जिस कार्यालय में काम करते रहे वहां सभी उनकी प्रशंसा करते थे।
तारीफ अच्छी भी लगती है। इस तारीफ ने उन्हें यह विश्लेषण करने से रोक दिया कि वे
इस बात की भी पड़ताल कर सकें कि दूसरों की नज़र में अच्छे बने रहने की चेष्टाएं
कहीं खुद उपने ही अस्तित्व पर बोझ तो नहीं बनती जा रही हैं। उनकी पत्नी रमा इस
बात को बहुत गहरे कहीं महसूस करती है और पति के भावसंसार और सामाजिक व्यवहार के
बीच एक सेतु बनकर उस खाई को पाटना चाहती है। उस खाई को जिसकी अतल गहराई में
तारकेश्वर अजाने-अनायास बहुत गहरे धंसते जा रहे थे। सेवानिवृत्ति के बाद के मोहभंग
के कुहासे में डूबते-उतराते वो याचक चेहरे जो विभागीय दबदबे की चमक और ठसक के आगे
हमेशा नतमस्तक रहा करते थे। वो चेहरे जो तारकेश्वर की कृपा से बेरोजगारी के बियाबान
को लांघकर नौकरी के सब्ज चारागाह में दाखिल हुए थे। उन सभी के लिए तारकेश्वर आज
जहां एक ही झटके में अब अर्थहीन हो चुके थे,वहीं परिवार के सदस्यों के लिए भी
स्वयं तारकेश्वर एक अवांछनीय और अनुपयोगी वस्तु की हैसियत में आ गए
थे। पुत्र विनय और पुत्रवधु आरती के उपेक्षाभरे व्यवहार में वो लापता आत्मीयता की
पड़ताल करते हुए थकने लगते हैं। शायद अपनी अच्छाई और परोपकार से किसे अनुगृहीत करना
है और किसे नहीं इस समझ को सहेजने में उनसे कोई भावुक चूक हुई थी। जो कि बहुत
जरूरी है। अपने बागीचे की सारी वनस्पतियों पर आप एक साथ जल नहीं बरसा सकते। ऐसा
करने में फूलों के साथ जो खरपतवार है वह फूलों से भी बड़ी हो जाती है। संबंधों की
इस खरपतवार में तारकेश्वर की लड़खड़ाती उम्र का पांव अब उलझने लगा था। दरअस्ल
अच्छाई बुरी नहीं है। सभी को खुश रखने की नीति बुरी है। यह तुष्टीकरण है। मगर
अच्छेपन की ललक में यह तथ्य गौण हो जाते हैं। औऱ फिर परिवार के मामले में तो ऐसा
अक्सर होता है। तारकेश्वर के साथ भी ऐसा ही हुआ।
परिता वारयति इति परिवारः। यानीकि जो चारों ओर से निवारण करे वह परिवार है। यहां
बतौर परिवार के मुखिया तारकेश्वर स्वयं तारण-उत्तारण की मुद्रा में ही रहे। स्वयं
एक ऐसा तारा बनने की जुगत में रहे जिसकी चकास-चमक से परिवार हमेशा आलोकित रहे।
उनकी पत्नी रमा,जिसका मन हमेशा परिवार की परिधि में ही रमण करता हो उस परिवार में
टूटन का अहसास तारकेश्वर के लिए
अप्रत्याशित था। ऐसा भी नहीं था कि परिवार के सदस्य उनकी उपेक्षा ही करते हों।
दरअस्ल यह परिवार की दो पीढ़ियों का वैचारिक संघर्ष था जिसे उनकी संवादहीनता ने और
अधिक गहरा दिया। एक अजीव-सी मनःस्थित हो गई थी तारकेश्वर की जहां उनका यह भी मन
करता है कि परिवार के सब सदस्य साथ-साथ रहें। वहीं जब ये सदस्य सब साथ आते हैं तो उनको यह
निकटता बोझ लगने लगती है। सामूहिकता और एकांत के बीच घड़ी के पेंडुलम की तरह
दु-तरफा भागदौड़ उनके भीतर होती रही। वह भूल जाते हैं कि जीवन वह वीणा है जिसके तारों
को ढीला छोड़ देने पर संगीत नहीं निकलता और तारों को बहुत ज्यादा कस देने पर तार ही
टूट जाते हैं। संगीत सम्यक-संतुलन में पैदा होता है। जिसे वह साध नहीं पाते हैं और
अपनों के बीच रहते हुए भी अकेलेपन के सन्नाटे में डूबते चले जाते हैं। और अततः इसी
सन्नाटे के कुहासे में हमेशा-हमेशा के लिए खो जाते हैं। एक बूढ़े होते जा रहे
व्यक्ति की जिद,अकेलापन,टूटन और अस्तित्वहीनता के बोध में कुछ ऐसा कर देने की ललक
जिससे अपने होने को रेखांकित किया जा सके इन सारे संवेगो को जितनी बारीकी से गिरीश
मिश्रा ने उपनी दीर्घ-कथा में उकेरा है निश्चित यह बड़ा महीन काम है और काफी
अभ्यास से आता है।
सारांशतः इस कहानी की
विषय-वस्तु जितनी नाजुक है उसे उतनी ही हिफाजत और नफासत के साथ गिरीश मिश्रा ने
पाठकों तक पहुंचाने का महत् कार्य किया है। कुल मिलाकर यह कथा पारिवारिक संदर्भों
का एक ऐसा संग्रहण है जिसमें कि अनकही उदासियों के अशरीरी अक्स हैं, दंशदायी
विसंगतियां हैं,बंजर होती संवेदनाओं के ढूह हैं,बेआवाज़ होती आत्मीयता के वो पल
हैं जहां भीड़ के सन्नाटे में खुद को पुकारती अंतर्ध्वनि की अनुगूंज है। एक ऐसी
आवाज़ जो तथ्यगत भी है और तत्वगत भी. और बहुत गहराई से महसूसें तो तथागत भी।
जैसाकि मैंने शुरू में ही कहा है कि इस कथा का बीज-तत्व है श्रेष्ठता। तो
श्रेष्ठता की आवाज़ सुनने के लिए संस्कारगत श्रेष्ठता भी बहुत जरूरी है। निकृष्टता
कभी श्रेष्ठता को सुन नहीं पाती है। जो चेतना की आर्योपदिष्ट ऊंचाई को उपलब्ध हैं
वह तुलसी-मन से निकले पारिवारिक यथार्थ के इस काल सापेक्ष कबीर-सत्य को समझ-समझ कर
सराहेंगे।यह मेरा सात्विक विश्वास है।
इति-स्वस्ति-शम..
बस इतना ही..
पंडित सुरेश नीरव
(कवि-पत्रकार)
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