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Monday, December 10, 2012

किरणों की नर्म लिबासों में उछलती है सहर

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 पेश है एक ताज़ा ग़ज़ल-
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किरणों की नर्म लिबासों में उछलती है सहर
सतह पे झील के हौले से टहलती है सहर
सजी हो थाल में पूजा के भावना की तरह
मन की कुटिया में किसी दीप-सी जलती है सहर
उलझ के पांव बहुत डगमगाए कोहरे में
पकड़ के हाथ हवाओं का संभलती है सहर
संवर के रात की सीपी में मोतियों की तरह
सफ़र को नरम घरौंदों से निकलती है सहर
सभी में होता है मासूम-सी ख़ुशबू का गुमां
कि जब भी सहमी-सी लड़की-सी मचलती है सहर
नज़ाकतों को नीरव समझ भी सकते हैं
दबे जो पांव ख़यालों में गुज़रती है सहर।

- पंडित सुरेश नीरव
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