देश के बुद्धिजीवियों को संजीदगी से अब सोचना ही होगा
अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति दामिनी के चले जाने के समाचार
से क्षुब्ध और क्रुद्ध दोनों है। हमें शर्मिंदगी है कि हम उस समाज में जी
रहे हैं जहां नैतिक मूल्य तेजी से समाप्त हो रहे हैं। और उनके रिसाव को
रोकने के लिए कोई सार्थक प्रयास किसी भी स्तर पर कहीं भी नहीं किये जा रहे
हैं। पाठ्यक्रमों से नैतिक शिक्षा के अध्याय हटा दिए गए हैं। और संचार
माध्यमों से अपराध लगातार परोसा जा रहा है। दामिनी के साथ हुए नृशंस
कुकृत्य ने भले ही सन्नाटे को तोड़ा हो मगर बलात्कार की घटनाएं उस दिन के
बाद से भी कहीं रुकी नहीं हैं। आंकड़े मुंह चिड़ा रहे हैं। केंडिल मार्च और
बुद्धिजीवियों की अनुत्पादक बहस और सरकार के घड़ियाली आसूं महज लीपापोती
है इससे ज्यादा कुछ नहीं। स्त्री घर के बाहर ही नहीं परिवारों में भी
बलात्कार का शिकार हो रही है। क्या इसके लिए वो संस्कृति जिम्मेदार नहीं है
जिसकी आउटसोर्सिंग युद्ध स्तर पर भारत में आजकल की जा रही है। क्या हमारे
पाखंडपूर्ण आचरण इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। क्या अपर्याप्त कानून को
इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। इस चौतरफा पतन को क्या सिर्फ
सरकार के भरोसे ही रोका जा सकता है। देश के बुद्धिजीवियों को इस गंभीर
मुद्दे पर संजीदगी से अब सोचना ही होगा। इतिहास गवाह है कि हर गिरावट को
कलम के बूते ही रोका गया है। हमारी जिम्मेदारी अब बहुत बढ़ गई है।
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