बिछ जाती हैं आँखें हुश्नों की ललक पर .
ठहर गयी सौरभता दिव्यता के परों में,
सिहर सिहर बहता पवन सरस पदचहल पर।
देखकर घनश्याम भी उतर आया गगन से,
कैसी उतरी चाँदनी शतरंगी झलक पर।
थिरकती कलियों में खो गया वनांचल सब,
ललनाएं निकल आयीं महल से सड़क पर।
भूल गयीं सौहर को प्रीति के पावस में,
लहराता वो आँचल नैनों की पलक पर।
सहमी-सी रुक गयी ये महकती विभावरी,
अलि थककर सो गया कलियों के फलक पर।
-भगवान सिंह हंस
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