साक्षात्कार-
प्रतिबद्धता वहीं संबद्धता जरूरी है
-पंडित सुरेश नीरव
वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर साहित्य में बहुत गरमागरम बहसें चला करती हैं।
जहां एक वर्ग साहित्य सृजन के लिए इसे बहुत आवश्यक शर्त मानता है तो वहीं कुछ
स्वतंत्रचेता साहित्यकार इसे सृजन की विरा़टता के लिए घातक मानते हैं। हमने इसी
संदर्भ में मौलिक चिंतक कवि पं. सुरेश नीरव से बात की। प्रस्तुत है उस बातचीत के
कुछ महत्वपूर्ण अंश-
नीरवजी आप विगत तीन दशकों से साहित्य
से संबद्ध हैं। आप वैचारिक प्रतिबद्धता को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं।
मेरे हिसाब से विचार और विचारधारा दो अलग-अलग चीजें हैं। विचार सतत है,निरंतर
है,प्रवहमान है जबकि विचारधारा एक निश्चित परिधि में सीमित,स्थिर और लगभग
अपरिवर्तनशील तर्कों और निष्कर्षों का संचयन है। विचार बहती धारा है और विचारधारा
वाद के गड्ढे में रुका पानी है। और जो रुक गया वह जीवंत नहीं हो सकता। हमारी
प्रतिबद्धता विचार से हो या विचारधारा से इस प्रश्न के उत्तर में मैं यही कहना
चाहूंगा कि प्रतिबद्धता भी एक तरह का जुड़ाव है,बंधन है,खूंटा है। फिर भी
प्रतिबद्धता जरूरी है। मगर प्रतिबद्धता किसके साथ। यह प्रतिबद्धता होनी चाहिए
विचार के साथ,मूल्यों के साथ। सृजन के लिए यही जरूरी है। मूल्यगत प्रतिबद्धता एक
व्यापक अनुभव संसार को सृजन में उतारती है। साहित्य को एक दृष्टि देती है जबकि
विचारधारा से प्रतिबद्धता एक विशेष दृष्टि से साहित्य को देखती है। सृष्टि से दृष्टि
का विकास हो यह तो ठीक है मगर सृष्टि को देखने का पूर्वग्रह एक किस्म का बौद्धिक
दीवालियापन है। मानसिक विकृति है। और अपने अनुभव संसार को बौना करने का भावुक हठ
है। इसके अलावा और कुछ नहीं।
00 तो फिर इतने सारे सृजनकार प्रतिबद्धता को स्वीकारने की बात क्यों करते हैं।
क्या उन्हें इसके नुकसान और फायदों की जानकारी नहीं है।
उन्हें नुकसान और फायदे दोनों की ही
बड़ी बारीक जानकारी होती है। वे जानते हैं कि तात्कालिक फायदों के बटोर लेने में
ही ज्यादा फायदा है बजाय भविष्यगत नुकसान के। इसलिए उन्होंने उस नुकसान की तरफ से
मुंह ही मोड़ लिया है।आनेवाले समय में मुल्यांकन होगा कि नहीं ौर होगा तो हमें किस
श्रणी में रखा जाएगा इस चिंता में दुबले
होने के बजाय यथाशीघ्र अपना मुल्यांकन,सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करना ही
जिन्होंने श्रेयस्कर समझा है वे उत्साहपूर्पक किसी-न-किसी वैचारिक मठ से जुड़ ही
जाते हैं।जहां उन्हें विरासत में एक गढ़ी हुई भाषा मिल जाती है,तैयार मुहावरे मिल
जाते हैं। एक प्रचलित भाषा से लैस समीक्षकों और रचनाकारों की फौज मिल जारी
है,जिसके बल पर वर्ग विशेष में उन्हें पहचान भी मिल जाती है। अपने बूते पर
अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में हारने की और जीतने की दोनों की संभावना रहती है मगर
किसी कबीले की सदस्यता ले लेने पर हार का भय समाप्त हो जाता है। क्योंकि तब पराजय
व्यक्तिगत न होकर पूरे कबीलो की मानी जाती है। और फिर लाभ चाहे विचारधारा के नाम
पर ही मिले लाभ ही होता है। जो अंततः व्यक्तिगत ही होता है। इसलिए प्रतिबद्धता का
सीधा मतलब है विचारधारा से जुड़े व्यक्ति का गारंटीशुदा लाभ और साहित्य का नुकसान।
00 यानी आप प्रतिबद्धता को एकदम नकारते हैं।
प्रतिबद्धता कहीं-न-कहीं अभिव्यक्ति को एक विशेष खांचें में ढलने को विवश करती
है जिस कारण अभिव्यक्ति बाधित होती है। और
प्रतिबद्धता इसमें बाधक बनती है। वेसे प्रतिबद्धता और संबद्धता में भी फर्क है। एक
कमिटमेंट है और एक इनवाल्वमेंट है। मसलन क्रांति के लिए कमिटमेंट एक चीज़ है और
क्रांति के लिए इन्वाल्वमेंट दूलरी चीज़ है। जिसने क्राति के मूल्यों को अपने जीवन
में नहीं जिया उसका क्रांतिकारी होना तो दूर है ही वह क्रांतिकारी लेखन भी उतना
सजीव, जीवंत और प्रामाणिक नहीं कर पाएगा।
इसलिए विचार की जगह मैं मूल्यों की प्रतिबद्धता
को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं।
मूल्य सृजन को विराटता देते हैं।
00 मूल्य और विचार में आप कैसे फर्क करते हैं।
इसे ऐसे समझा जा सकता है। कबीर ने जो
लिखा उसे जिया भी। जो कहा उसे किया भी। एक
एकात्म है उनकी जीवन शैली में। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में। उनके जीवन का
मूल्य था पाखंड पर प्रहार। विद्रोह कबीर
के जीवन का मूल्य है।महज़ विचार नहीं। लेकिन बाद में लोग सोच-समझकर उसे विचारधारा
के एक खांचे में फिट करने लगते हैं। वो किसी विचारधारा विशेष का तमगा नहीं चाहते
थे। वो इसकेलिए लिख भी नहीं रहे थे।
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