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Tuesday, April 30, 2013

ग़ज़ल का एक शिगुफ्ता चेहरा



सुरेश नीरवःग़ज़लों का शिग़ुफ़्ता चेहरा
-(पद्मश्री) डॉक्टर बशीर बद्र
पंडित सुरेश नीरव
एक शायर की हैसियत से रचनात्मक तौर पर इधर आठ-दस सालों से मेरे भीतर बहुत-सी तब्दीलियां आई हैं और मैंने अपने अहद की शायरी की जबान और उसके पोयटिक ट्रीटमेंट के बारे में बड़ी शिद्दत से सोचना शुरू कर दिया है। और मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ग़ज़ल हर दौर में अपने अपने वक़्त की बोली जानेवाली जबान में ही लिखी गई है। और लिखी जाती रहेगी। यह शायर का ही कमाल होता है कि वह बोलचाल की भाषा के बूते पर ही कई जबानों की धड़कन बन जाता है। इस मामले में मैं कबीर को अपना रहबर मानता हूं। अगर और पीछे जाएं तो हैरत होती है कि जिस खुसरो को हम जानते हैं और उनकी जिन गजलों को जानते हैं उसके एक मिसरे में आधा मिसरा उस देहाती बोली का है जो खुसरो के शायराना कमाल से मिलकर आज भी हरा-भरा है। कबीर को अपना सबसे बड़ा रहबर मानने का मतलब यह कतई नहीं है कि मैं उनकी शब्दावली को अपनी शब्दावली बना लूं। और न ही मुझमें इतना कमाल है कि मैं उनके हर तलफ्फुज़ को शब्दो में बांधकर सही साबित कर दूं। क्योंकि कबीर ही ऐसे शायर हैं जिनका पोयटिक ट्रीटमेंट,पोयटिक एक्स्प्रेशन इतना सहज है,इतना नेचुरल है कि उसके मुकाबले सही शब्द भी गलत लगने लगता है। ऐसी मिसालें ग़ज़ल के तमाम शायरों की ग़ज़ल में मिलती हैं कि लफ्ज़ का नया इस्तेमाल हो और हर लफ्ज़ बिल्कुल अपने अहद की बोलचाल से लिया गया हो। आज इक्कीसवीं सदी तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल के मुख्य मेटॉफर(ऱूपक), सिंबल(प्रतीक), सिम्लीज (उपमाएं) जो कभी रिवायत में थे अब बिल्कुल अनपोयटिक(गैर शायराना) हो चुके हैं और इनमें कोई खूबसूरती नहीं रह गई है। हमें नए-नए शब्दों को,नए-नए रुपकों को अपनाना ही होगा,यह वक्त की मांग है।अपने पोयटिक क्रिएशन के दौर में नए शब्द ही ग़ज़ल को नई शक्ल दे सकते हैं। और पंडित सुरेश नीरव ने यह कमाल अपनी ग़ज़लों में बखूबी करके दिखाया है। तंज़ो-मिजाह के इनके ग़ज़ल संग्रह मज़ा मिलेनियम में मैंने टेलीफोन,स्टेशन,कमांडो,करेंट,फ्यूज,कंप्यूटर और टी.वी.-जैसे कम-से-कम डेढ़सौ ऐसे शब्द निकाले हैं,जिन्हें आज अंग्रेजी के शब्द कहना या मानना ग़लत होगा क्योंकि काफी लंबे समय से ज़िंदगी में इस्तेमाल होते रहने के कारण,अब ये शब्द अंग्रेजी के नहीं रह गए हैं।अब वे हिंदी और उर्दू जुबान के हिस्सा बन चुके हैं। हमने अपनी जबान के सौंधे सांचे में इन्हें ढालकर अपना बना लिया है। ऐसे  अद्भुत प्रयोग आनेवाले अहद की शायरी के लिए बहुत अहम हैं ही और अब जरूरी भी हो गए हैं।
सुरेश नीरव ने तजुर्बों और गहरी पकड़ की बिना पर ग़ज़ल की जो सच्ची भाषा है,उसकी आत्मा को छू लिया है। नीरव-जैसे शायरों ने अपनी शायरी से यह साबित कर दिया है कि भाषा का सफ़र कभी थमता नहीं है। और जो उसके साथ कदम-से-कदम मिलाकर नहीं चल पाता है,वह शायर बेमानी हो जाता है। शायरी में शिग़ुफ्तगी(खिलावट), नुदरत(नयापन), मानीआफ़रीनी (अर्थपूर्णता) और ख़ूबसूरती सब हमारी ज़िंदगी का ही हिस्सा हैं। जिसकी मुख्तलिफ ख़ुशबुओं से बोलचाल की जबान को एक नई महक,एक नयी शक़्ल देना उस दौर के शायर का तहजीबी फर्ज़ है। आज पूरे भारत की जो हिंदी है या उर्दू है,वह हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत की ही नई शक़्ल है। और वही ग़ज़ल की सच्ची भाषा है। इस भाषा में एक वर्डक्लास लिटरेरी लेंग्वेज की संपूर्णता है। और इसकी बेहतरीन मिसाल हैं सुरेश नीरव की ग़ज़लें। अदबी हलकों से इन्हें और इनके क़लाम को पजीराई(स्वीकारता) हासिल होगी इन नेक ख्वाहिशों के साथ मैं लफ्ज़ों के इस सफ़ीर को आपके सुपुर्द कर रहा हूं।
                                                  -पद्मश्री डॉक्टर बशीर बद्र
                                     11,रेहानाकॉलोनी,ईदगाहहिल्स,भोपाल(म.प्र.)

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