दुनियां की घुमंतु जातियां-
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चलना है जीवन का नाम..चलते रहो सुबह और शाम...
पंडित सुरेश नीरव
यात्राएं मनुष्य को प्रशिक्षित करती हैं। यात्राऔं के दौरान मनुष्य तमाम तरह
की संस्कृति और भाषाओं से होकर गुजरता है। और व्यावहारिक रूप से काफी कुछ सीखता
है। भारतीय संस्कृति का तो
केन्द्रीय तत्व ही घूमना रहा है। दक्षिण से उत्तर और पूरब से पश्चिम चारों दिशाओं
में भारतवासी यात्राएं करते रहे हैं। ये यात्राएं व्यापारिक यात्राएं होती थी या
फिर धर्म पर आधारित तीर्थ यात्राएं। यात्रा को हमारे यहां बड़ा ही पावन कर्म माना
गया है। धर्म में वह संन्यासी है। तो साहित्य में वह यायावर है। प्रकृति प्रेम में
वह पर्यटक है और सैलानी है। हमारी संस्कृति मानती है कि पृथ्वी घूमती है तो इसके
निवासियों को भी पृथ्वी की तरह आचरण करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूमना
चाहिए। पृथ्वी के घूर्णन से ही मनुष्य का घूमना जुड़ा है। परिव्राज का अर्थ भी
भ्रमण है। चूंकि साधु एक जगह नहीं रुकता है लगतार वह पररिव्राज करता है इसलिए साधु
को परिव्राजक भी कहा जाता है। बुद्ध,महावीर,शंकराचार्य सभी परिव्राजक थे जो धर्म
यात्राएं करके ही अपने शिष्यों को उपदेश दिया करते थे। स्थानाम स्थानात् अतति सः
अतिथि। जो एक स्थान से दूसरे स्थान का अतिक्रमण करता है,एक स्थान की सीमा लांघता
है उसे ही अतिथि कहा गया है। अतिथि देवो भव। अतिथि को भगवान का दर्जा दिया गया है
हमारी संस्कृति में। इसलिए हमारे संस्कारों में घूमना एक पुण्यकर्म मान लिया गया।
घु का अर्थ शब्द करना भी होता है। पशुओं को हांकते समय चरवाहा विशेष प्रकार की
शब्द ध्वनि निकालता है। और पशुओं को चराते हुए काफी दूर तक घूमता है और नए-नए
स्थानों की तलाश में घूमता है इसलिए
उसे घुमंतु भी कहा गया है। शायद इसीलिए दुनिया की अधिकांश घुमंतु जातियां पशुपालक
ही हैं। घूमना इनका जीवन है और घुमक्कड़ी इनका धर्म है। सामंतीकाल में एक राजा जब
विजय यात्रा पर निकलता था तो उसके साथ सैनिकों के रूप में भी संस्कृति ही यात्रा
करती थी। राजनैतिक अभियान के बाद राजा के साथ आई जातियां यहीं रह भी जाती थीं। और इस तरह हर दौर में भारत में एक नई मिलीजुली संस्कृति की
बुनावट शुरू हो जाती थी। ये घुमंतु जातियां केलव भारत में ही नहीं हैं बल्कि दुनिया
के हर एक देश में पाई जाती हैं। ये बात अलग है कि नृशास्त्रियों के मुताबिक इन
सारी घुमंतू जातियों के पुरखे भारतीय ही हैं।
अरब के बद्दू
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आर्य,द्रविड़,यवन,शक,हूण,तुर्की,मुगल,पठान,पुर्तगाली,फ्रांसिसी,चीनी
और अंग्रेज सभी ने भारत में किसी-न-किसी रुप में यात्राएं की है।
हुयेनचांग,इत्सिड,फाह्यान चीनी यात्री थे जिन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर भारत की
यात्राएं की। बौद्ध धर्म के प्रचार के समय भारत से भी तमाम देशों में बौद्ध भिक्षु
गए थे। और
उन्होंने सुदूर देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। घूमने के इस महत्व को आगे चलकर अरब के बद्दुओं ने भी समझा। अरब के बद्दू आज भी अपनी अलग पहचान बनाए रखने का
संघर्ष कर रहे हैं। भारत के बंजारों की तरह अपने ऊंट और भेड़ों के लिए इनके काफिले
रेगिस्तान में एक जगह से दूसरी जगह सफर करते रहते हैं। ये अरब के प्राचीनतम मूल
निवासी है। इन बद्दुओं में
आद,थामद,तास्म,जदी,इमलाक, जनजाति के लोग होते हैं। तास्म,जदी की जाति तो अब लगभग समाप्तप्राय है।.
चीन के घुमंतु
कुछ यही हाल
चीन की फुमि घुमंतु जाति का भी है। आंकड़ों के मुताबिक ये चीन की सबसे कम
जन-संख्यावाली जाति है। इन की कुल जन संख्या मात्र तीस हजार है , जो दक्षिण पश्चिम चीन के युन्नान प्रांत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में
स्थित पाई व फुमी जातीय स्वायत्त काऊंटी में रहती है। माना जाता है कि करीब 13
वीं शताब्दी में ये लोग स्थानांतरित
हो कर आज के आबाद स्थल आ कर बस गए थे और पशुपालन से अपना जीवन यापन करते थे। पिछले सात
सौ सालों से इन फुमी लोगों ने युन्नान प्रांत के नानपिंग क्षेत्र की फुमी काऊंटी को
अपना ठिकाना बनाया हुआ है।
चीन की एक और घुमंतु जाति मान का इतिहास थोड़ा हटकर है।। उत्तर पूर्व चीन में बसी इस घुमंतू जाति ने काफी इघर-उधर भटकने के बाद 17 वीं शताब्दी के शुरू में उत्तर पूर्व चीन में अपनी सत्ता उत्तर चिन की स्थापना की। उत्तर चिन राज्य के सम्राट नुरहाछी ने शङयांग को अपनी राजधानी बनाया और वहां एक खूबसूरत राज महल भी बनवाया । नुरहाछी के देहांत के बाद उस के पुत्र ह्वांगथाईची ने सत्ता संभाली। ह्वांगथाईची ने उत्तर चिन का नाम बदल कर छिंग रखा और राजधानी के राजमहल का निर्माण पूरा कर दिया , यही है आज तक सुरक्षित शङयांग राज महल ।
छिंग राजवंश के दो शुरूआती सम्राट ह्वांगथाईची और उस के पुत्र फुलिन दोनों इसी महल में गद्दी पर बैठे थे । फुलिन के शासन काल में छिंग राजवंश ने चीन के भीतरी इलाके में प्रवेश कर तत्कालीन मिंग राजवंश का तख्ता पलट दिया और पेइचिंग में अपना केन्द्रीय शासन कायम कर लिया । इस तरह छिंग राजवंश की राजधानी भी पेइचिंग में स्थानांतरित हो गई और शङयांग का राजमहल छिंग राजवंश की पुरानी राजधानी के रूप में इतिहास में दर्ज हो गया। शङयांग का यह पुराना राज महल 60 हजार वर्ग मीटर की भूमि में फैला हुआ है जिस में कि 70 से ज्यादा भवन और तीन सौ से अधिक कमरे बने हुए हैं । चीन के परम्परागत राज महल से वास्तु शिल्प के मामले में यह बिल्कुल अलग है और घुमंतू जाति की विशेष वास्तु शैली में बना हुआ है। कोई घुमंतु जाति एक जगह रुककर अपना राज्य स्थापित कर ले इतिहास में ऐसी मिसाल संभवतः कहीं और नहीं है। बाकी घुमंतु जाति का जीवन दर्शन तो आज भी वही है-गाता जाए बंजारा,लेकर दिल का इकतारा।
यूरोप
के रोमा और
जिप्सी
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यूरोप
में जो जिप्सी पाए जाते हैं वे भी भारत के बंजारों की ही तरह एक जगह से दूसरी जगह
सफर करते रहते हैं। नृशास्त्रियों का मानना है कि ये जिप्सी तीन-चार सौ साल पहले सेंट्रल
भारत से ही यूरोप आए थे। यूरोप के हरे-भरे खेतों के किनारे बने इनके तंबू और पालतू
पशु इन्हें यूरोप की चमक-दमक से बिल्कुल अलग-थलग करते हैं। इनके सामाजिक रीति-रिवाजों पर भारत के
रिति-रिवाजों का असर भी देखने को मिलता है। ये जिप्सी या रोमा पलायन करके यूरोप या अन्य
देशों में पहुंचे हैं इस सिद्धांत को ये घुमंतु सिरे से खारिज करते हैं। उनका कहना
है कि उनकी पर्यटक प्रवृति ने उन्हें खानाबदोश की जिंदगी जीने के लिए प्रेरित किया
था। और यह निर्णय हमारी जाति के संयुक्त परिवारों ने खुशी-खुशी लिया था। जबकि
पश्चिमी नृविद्वान एंगंस फ्रास्टर का कहना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए जातीय
हमलों ने इन्हें अपनी जड़ों से दूर जाने को मजबूर किया था। डेड़लाख रोमा तो अकेले कोसोवो से ही यूरोप में आए थे। उनकी बात से और
विद्वान सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि स्पेन और ग्रीस तथा कनाडा तक में जिप्सी
रह रहे हैं जो एक जगह से दूसरी जगह अपनी इच्छा से घूमते रहते हैं बावजूद इसके कि
वहां उन्हें अपने व्वसाय लगाने के लिए कोई प्रतिबंध नही है। हां एक बात तय है कि
ये घुमंतु रोमा तमाम खतरों और तकलीफों की परवाह किए बिना आज भी खानाबदोशी के लिए
हर पल तैयार रहते हैं। और घुमंतुपन इनका बुद्धमूल संस्कार है। उनके रीति रिवाज देश
की बहुसंख्यक समाज से बिल्कुल अलग हैं और वे इन रीति-रिवाजों की कीमत पर कोई समझौता
करना भी नहीं चाहते हैं। अगर वे कभी एक जगह टिकेंगे तो अपनी इच्छा और परिश्थिति के
मुताबिक ही टिकेंगे। वे दुनिया के बाकी समाज से कैसे तालमेल बैठाएं और उनकी
भावनाएं क्या हैं अभी इसका व्यापक अध्ययन
होना बहुत जरूरी है। इन के जातीय संगीत , भाषा , संस्कृति व रीति रिवाज में एक अलग और मौलिक विशेषता पायी
जाती है।
भारत में विमुक्त जातियां----------------------------------
एक सर्वेक्षण
के मुताबिक भारते में इन दिनों 666 घुमंतु और
विमुक्त जनजातियां हैं।
जिसमें 52 तो अकेले राजस्थान में ही हैं। जिन्हें अभी तक सूचिबद्ध भी नहीं
किया जा सका है। आज
भी महानगरीय सभ्यता के बीच ये घुमंतु जातियां अपनी पहचान बनाए रखने की जद्दोजहद
में जुटी हुई हैं। सड़क किनारे कभी अचनाक कई बैलगाड़ियां आकर रुकती हैं। राजस्थानी शिल्प की बैल
गाड़ियां। उसमें से निकलते हैं कुछ तंबू। लोहा ढ़ालने की इनकी विशेष भट्टी।
राजस्थानी लाल पगड़ी पहने हुक्का गुड़गुड़ाते पुरुष और चटख लाल घेरदार घाघरा,छींट
की कंचुकी,कलाई में हाथीदांत की बनी चूडियां,पांव में चांदी के भारी कड़े (पौंची)
और माथे पर चांदी का लटकता झूमर इनकी पहचान है। खुरपी, फांवड़े, कुदाली, संडसी, कैंची और बड़े कीले बनाकर ये
अपना जीवन यापन करते हैं। और जब मन उचट जाता है तो अपने डेरा-तंबू उखाड़कर दूसरे
शहर की तरफ अपनी रवानगी डाल देते हैं। नदी के पानी की तरह ये कभी एक जगह रुकते
नहीं। रुकना भी नहीं चाहिए। रमता जोगी बहता पानी इनका कोई ठौर न ठिकाना। जहां चले
वहीं रास्ता बन गया। कहते हैं कि ये सब महाराणा प्रताप के वंशज हैं। महाराणा
प्रताप ने कसम खाई थी कि जब तक हम दुबारा अपना चित्तोड़ गढ़ हासिल नहीं कर लेंगे
तब तक न तो खाट पर सोएँगे और न एक जगह रुकेंगे। समय का पहिया घूमकर कहां से कहां
पहुंच गया मगर इनके संकल्प के रथ का पहिया अभी भी गतिवान है। ये कहीं एक जगह रुकते
ही नहीं। ऐसी ही कुछ और घुमंतु जातियां कंजर, सांसी, बावरिया, कलंदर,नट और पिंडारियों की भी हैं। आज सांसी
लोग किसी भी शहर में नालों के किनारे मलिन बस्तियों में रहने को मजबूर हैं। गोश्त
की दुकानों से बेकार फैंके गए मुर्गी
के पंजे, गर्दन और आंतें इनकी उदरपूर्ति का एक
मात्र साधन है। दुर्भाग्य से समाज में इस जाति के लोगों को अपराधी की नजरों से
देखा जाता है। घुमंतु जाति में एक और जाति है-कलंदर। कलंदर समाज के
लोग कभी भालू और बंदर का नाच दिखाकर और सपेरे लोग गीन की धुन पर सांप को नचाकर
लोगों का मनोरंजन करते थे और एक शहर से दूसरे शहर में घूमा करते थे। जानवरों पर
प्रतिबंध लग जाने के बाद अब हाथ की सफाई और जादू इनकी रोजी-रोटी का साधन हैं। हां
कुछ सपेरे अभी भी गांव-शहर में देखने को मिल जाते हैं। नट भी एक घुमंतु जाति है।
कभी इनके कारनामों का जलवा हुआ करता था मगर आज नट समाज के बच्चे फुटपाथों पर
योगासन के करतब दिखाकर अपना पेट भरते हैं। पासी समाज के लोग बाल्टी कनस्टर में
पैंदा लगाने,खुरपी आदि में हत्था लगाने का काम कर के अपनी रोटी का जुगाड़ करते
हैं। और बावरिया
समुदाय के लोगों ने बड़े किसानों के खेतों में काम करके अपनी रोटी का इंतजाम शुरू
कर दिया है। पिंडारी समाज के पुरुषों और स्त्रियों ने अपनी बहादुरी से अंग्रेजों के सीने में भी
खौफ पैदा कर दिया था। इतिहास गवाह है कि भारत में फिरंगी शासन की नाक में दम
सबसे ज्यादा अगर किसी ने की थी तो वह इन्हीं विमुक्त जाति के लोगों ने ही की थी। ये
छापामार लड़ाई में इतने दक्ष हुआ करते थे कि इनके बारे में कहा जाता था कि इनका कोई
ठिकाना नहीं कि ये कहां घुसें और कहां निकलें। दिल्ली की तीस
हजारीकोर्ट में अठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के जुर्म में
जब तीस हजार लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई थी तो उस तीस हजार स्वतंत्रता सेनानियों में सत्तर
प्रतिशत स्वतंत्रता सेनानी इसी घुमंतु जाति के लोग थे। मुगकाल से लेकर अंग्रेजी
शासन से लोहा लेनेवाली इस विमुक्त जाति की सामाजिक दशा आज भी वही है जो विदेशी
शासन में थी यह एक चिंतनीय बात है जिस पर हम सभी को गंभीरता से सोचना चाहिए।
. भारत मे विमुत्त जातियों की
सामाजिक स्थिति--------------------------------------------------
कुल मिलाकर आज की जीवनशैली ने दुनिया के सभी घुमंतु समाज के अस्तित्व के सामने
कई प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं। भारत में इन घुमंतुओं के एक जगह टिककर न रहने की
आदत के कारण अधिकांश न तो किसी शहर के
स्थाई नागरिक हैं और न ही कहीं के मतदाता। न इनका कोई राशनकार्ड है और न कोई और ही
तरह का कोई पहचान पत्र। इन जातियों की अस्त्तित्व रक्षा के लिए इन्हें
आरक्षण देने और इनके विकास तथा कल्याण के लिए समय-समय पर विभिन्न आयोगों के गठन
जरूर होते रहे हैं मगर दुर्भाग्यवश इन आयोगों की सिफारिशों को आज तक लागू नहीं
किया जा सका है। इनके बच्चों के लिए आवासीय स्कूल खोलने,इन्हें छात्रवृति देने और
अलग से घुमंतु विकास बोर्ड और मंत्रालय खोलने और केन्द्र में एक मंत्री इनके ही
समुदाय से बनाए जाने की मांग कई बार उठाई गई है। मगर अभी तक कोई ठोस सरकारी पहल सामने
नहीं आई है और ये विमुक्त जातियां अभी भी अपने देश में शरणार्थियों से भी बदतर
जिंदगी जीने को विवश हैं। इनकी मांगों को लेकर तथा इस समुदाय में जाग्रति लाने के
लिए कुछ संगठनों ने जागृति यात्राएं भी निकाली हैं। महाराष्ट्र में इनके लिए सरकार
ने जरूर कुछ सार्थक कदम उटाए हैं। लेकिन इनके पुनर्वास और विकास के लिए राष्ट्रीय
स्तर पर अभी बहुत कुछ होना बाकी है।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
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