आज दैनिक हिंदुस्तान के नश्तर स्तंभ में मेरा व्यंग्यलेख छपा है। अपनी राय दीजिएगा।
नश्तर के लिए-
-------------------
जब जागो तभी सबेरा
-सुरेश नीरव
कहावत है कि जब जागो तभी सबेरा। सांप्रदायिकता के निद्रलु रसायन का असर
खत्म हुआ तो भैयाजी की नींद टूटी। नींद टूटी तो नज़र के सामने एक नया ही
नज़ारा देखने को मिला। देखा कि एक बूढ़े सत्याग्रही के पीछे सैंकड़ों लोग
चले आ रहे हैं। झंडे और तख्तियों के बजाय उनके हाथ में पानीभरी प्लास्टिक
की बोतले हैं। न कोई नारेबाजी न कोई हंगामा। इतने अनुशासित कार्यकर्ता भला
किस पार्टी के हो सकते हैं। यह सोचकर भैयाजी का भेजा घूम गया। एक राजनैतिक
दक्ष के आगे प्रश्न का यक्ष प्रत्यक्ष खड़ा हो गया। उन्होंने बूढ़े से पूछा
आप कौन है? और आपके पीछे नाना प्रकार के ये नर-नारी अखंड भक्ति भाव के साथ
कहां जा रहे हैं? इतना धांसू भक्तिभाव तो हमने मंदिर समर्थन की रथ यात्रा
में भी नहीं देखा था। बूढ़े ने हंसते हुए कहा- मैं गुडमार्निंग इंडिया हूं।
और ये स्त्री-पुरुष सबेरा पार्टी के अनुशासित और समर्पित स्वयंसेवक हैं।
जिस दिन से ये चलने लायक हो जाते हैं और जिस दिन तक अपने पैरों पर चलने
लायक रहते हैं बेनागा ये लोग नित नूतन,चिर पुरातन दिहाड़ी उत्साह के साथ हर
सुबह आँधी-बरसात की परवाह किये बिना मेरे नेतृत्व में सामूहिक श्रमदान
करते हैं। चाहे फिरंगी सरकार रही हो या आज की मल्टीनेशनल स्वदेशी सरकार
इनकी कोई भी धारा एक-सौ-चवालीस या कर्फ्यू इन जांबाजों की सरफरोश तमन्ना के
पर नहीं कतर सका है। अपनी दुर्दांत सविनय अवज्ञा के बल बूते पर अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का इन्होंने कभी हनन नहीं होने दिया है।
गांव के हरे-भरे खेत,शहर के पार्कों से लेकर नाले और रेल की पटरियां सभी
हमारे श्रमदान के उत्सव स्थल हैं। हम गर्व से कह सकते हैं कि देश में
राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सदभाव का जज्बा अगर कहीं बचा रह गया है तो
वो केवल गरीबीरेखा की रेशमी डोर से बंधे इन धर्मनिरपेक्ष भारतवासियों में
ही आपको देखने को मिलेगा। यहां न उम्र की सीमा है,ना जाति का है बंधन। यहां
है सिर्फ़ सनसनाती ताजगी से लवरेज खालिस सामाजिक समरसता जो गलबहियां डाले
रोज़ सैर को निकलती है। स्वयंसेवकों की इस अटूट बलिदानी भावना के डर के
मारे भैयाजी का आकस्मिक हृदय परिवर्तन हो गया। भैयाजी को एक चुकटीभर सेकुलर
चूर्ण ने फटाफट सांप्रदायिकता के कब्ज से छुटकारा दिला दिया। मंदिर नहीं
उनकी सोच के एजेंडे में अब शौचालय है। एक वाइब्रेंट शौचालय। उन्होंने अपने
जीवन का सत्य खोज लिया है। किसी नकली किले पर लाल-पीला होने के बजाय शौचालय
पर खड़े होकर महारैली को संबोधित करने की धार्मिक भावना से ओत-प्रोत
भैयाजी आजकल इस दुर्लभ मुद्दे के सुलभ चिंतन में डूबे हुए हैं कि देश में
शौचालय बनवाने चाहिए या राष्ट्रहित में इस देश को ही महाशौचालय बना दिया
जाए। सहयोगी दलों की राय जानने के बाद ही नेताजी देश को दिशा-मैदान के
परिवर्तनकारी निर्देश देंगे। क्रोंच वध की एक घटना ने डाकू को कवि बना
दिया। सुबह के एक नज़ारे ने भैयाजी को मंदिर से शौचालय में ला दिया। एक
परिवर्तनकारी ख़ुद परिवर्तनग्रस्त हो गया। कोई गल नहीं जी..-जब जागो तभी
सबेरा।
No comments:
Post a Comment