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Wednesday, February 19, 2014

हमने खायी न कसम




हमने खायी न कसम, तुमसे न मिलने की.
वक्त  ही   बतायेगा,   तारिख     मिलने की.

पतंगा तैयार है अपने आशियाने में.
इंतजारी  है सिर्फ चिराग जलने की .

ये आँसू  हैं अव्यक्त,  ग़म  या नेह के  .
टहलते करते वो इनायत मिलने की
.
कोई  दीवार  है  न  बीच  में   ए -खुदा .
फिर क्युं रोक-ए-वक्त तुमसे मिलने की.

नादानी या दीदार क्युँ , खुले  आसमां.
महरवां -ए -महफूज़, ज़रा बरसने की.

क़दरदान! क़द्र होती   है क़दरदान से.
सोना ना खाता कसम यूँ चमकने की.

नज़रे-ए-आलम ढ़ूँढ़ती इस जहाँ  में.
वो बैठा आस-ए-तमन्ना मिलने की

 

भगवान सिंह हंस

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