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Wednesday, December 6, 2017

छब्बीसवीं किस्तः छूटते-जुड़ते शहर

पिता जी ने पीलीभीत से आकर जब बहराईच नगर पालिका में लेखाकर के पद का कार्यभार ग्रहण किया था तब हम उम्र में बहुत छोटे-थे। एक शहर से दूसरे शहर के लिये प्रस्थान का हमारे लिये तब कोई खास मायने नहीं था। परन्तु जब पिता जी के तबादले के चलते हमारा बहराईच से झाँसी जाना हुआ तब हमारे चेहरे पर कहीं खुशी के बादल मडरा रहे थे तो कहीं दुख के। झाँसी एक विश्व प्रसिद्ध शहर था। जहां बहराइच एक छोटा शहर भर था वहीं झांसी कमिश्नरी थी। अत्यन्त आकर्षक और बड़ा-सा रेलवे स्टेशन, भव्य रानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कालेज और विशेष रूप से वहां 8 के करीब छोटे-बड़े सिनेमा हालों का हमारे लिये खास आकर्षण था। और सबसे बड़ी बात जो थी वह यह थी कि जिस रानी से जुड़ा कवयित्री सुभद्रा कुमारी का लिखा गीत ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ अपने गवर्नमेंट इंटर कॉलेज की विभिन्न कक्षाओं में गा-गा कर हमने अनेक बार अपने शिक्षकों और सहपाठियों की वाह-वाही लूटी थी, हमें उसी महान वीरांगना के शहर में आने का सुअवसर मिल रहा था। इसके विपरीत ग़म इस बात का था कि जिस शहर में हमने होश संभाला, हमारा बचपन बीता और जिसने हमें शुरूवाती दिनों में ही गीत-संगीत के क्षेत्र में किसी चाइल्ड स्टार जैसा ग्लेमरस जीवन देकर बुलंदियों तक पहुंचाया था, बचपन के ढेर सारे प्रिय साथियों सहित वह सब बहुत कुछ कीमती हमसे छूट रहा था।

जिस दिन हमारे घर का सामान ट्रक में लादा जा रहा था उस दिन घर क्या, मानो समूचे मोहल्ले में निस्तब्धता छाई हुई थी। हम उदास, हमारे संगी-साथी उदास और सारा वातावरण भी ग़मगीन-सा दिखलाई पड़ रहा था। जब सारा सामान ट्रक में लादा जा चुका था तब खाली मकान की दीवारें चूम चूम कर हम रो पड़ थे। हम बारी-बारी से हर कमरे में जाते। जहाँ-जहाँ हम खेले-कूदे थे, सजल नेत्रों से वहाँ की ज़मीन छू-छूकर देखते और मायूसी से आगे बढ़ जाते। उस वक़्त हम घर के अहाते में लगे पेड़-पौधों से भी काफ़ी देर तक लिपटते-चिपटते रहे थे । कभी तो उन्हें देखकर यह भी महसूस होता कि वह  आगे बढ़कर हमें झाँसी जाने से रोकना चाह रहे हों  

हमारे पिताजी के प्रयास से जिस ओमप्रकाश भैया के पिता को नगर पालिका प्रांगण में रेस्टोरेंट के लिये जगह मिली थी, हमारी बिदाई पर उनका सबसे ज़्यादा बुरा हाल था। ओमप्रकाश भैया तो घंटों हमें पकड़कर फूट-फूट कर रोते रहे थे। और हमारे ट्रेन पर सवार होने पर तो ऐसा लग रहा था जैसे वह हमें रोकने के लिये ट्रेन के आगे ही लेट जायेंगे।

7 नवंबर,2017 
(शेष अगली किस्त में)





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