बादलों का काफ़िला आता हुआ अच्छा लगा
प्यासी धरती को हर सावन बड़ा अच्छा लगा।
उस भरी महफ़िल में उसका चंद लम्हों के लिए
मुझसे मिलना, बात करना, देखना अच्छा लगा।
जिनका सच होना, किसी सूरत से भी मुमकिन न था
ऐसी-ऐसी बातें अक्सर सोचना अच्छा लगा।
वो तो क्या आता मगर, ख़ुशफहमियों के साथ-साथ
सारी-सारी रात हमको जागना अच्छा लगा।
पहले-पहले तो निगाहों में कोई जंचता न था
रफ़्ता-रफ़्ता दूसरा फिर तीसरा अच्छा लगा।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
1 comment:
वाह, वाह, बहुत ही उम्दा
Post a Comment