आज सुबह ४.०० बजे नेमिशारन्य से वापस पहुंचे। १५ घंटे की बेहद उबाऊ यात्रा जागते हुए काटी। लिहाजा बेहद थका हुआ महसूस कर रहा हूँ। मगर ब्लॉग पर आए बिना मन नहीं माना,इसलिए हाज़िर हूँ। आज फानी बदायूंनी की एक और ग़ज़ल पेश है।
इश्क ने दिल में जगा की तो कज़ा भी आई
दर्द दुनिया में जब आया तो दवा भी आई।
दिल की हस्ती से किया इश्क ने आगाह मुझे
दिल जब आया तो धड़कने की सदा भी आई।
सद्क़े उतरेंगे, असीराने- कफस छूटे हैं
बिजलियाँ लेके नशेमन पे घटा भी आईं।
हाँ न था बाबे-असरबंद मगर क्या कहिए
आह पहुँची थी कि दुश्मन की दुआ भी आई।
आप सोचा ही किए, उस से मिलूं या न मिलूं
मौत मुश्ताक को मिट्टी में मिला भी आई।
लो मसीहा ने भी, अल्लाह ने भी याद किया
आज बीमार को हिचकी भी कज़ा भी आई।
देख ये जादा-ऐ-हस्ती है, संभल कर फानी
पीछे-पीछे वो दबे पाँव कज़ा भी आई।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
No comments:
Post a Comment