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Saturday, June 13, 2009

स्वाधीनता के बीज

स्वाधीनता के बीज
1868 से 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन तक के सौ वर्ष का हिंदी साहित्य किसी न किसी रूप में भारतीय स्वाधीनता से जुड़े होने का साहित्य रहा है। 1868 में जब भारतेंदु हरिशचंद्र ने ‘कवि वचन सुधा’ पत्रिका निकाली, जिसे हिंदी की पहली पत्रिका होने का गौरव प्राप्त है, तो उसके दस वर्ष पहले यानी 1857 में स्वाधीनता संग्राम का पहला आंदोलन छिड़ चुका था और फिर भारी हिंसा के बाद वह लगभग कुचला जा चुका था, लेकिन समाज में स्वाधीनता के बीज जीवित थे।
वैसे कठिन समय में यह पत्रिका स्वाधीनता की संवाहक बनी। उस वक्त गांधी पैदा नहीं हुए थे। कांग्रेस की स्थापना नहीं हुई थी। इसके बाद जन जागरण का काम ‘सरस्वती’ पत्रिका ने बखूबी संभाला, जिसका प्रकाशन १९क्क् में प्रारंभ हुआ था। यह वह काल था, जब दुनिया के आधे देश जिसमें आधी से ज्यादा आबादी बसी हुई थी, गुलाम थे। सर्वत्र एक जन उभार था, आक्रोश था, आग की लपटें और बंदूकें थीं। एक संस्कृति का निर्माण हो रहा था। आजादी पाने की ललक दिलों के अंदर बसी रहने वाली लालच, कुंठा, अवसरवादिता और भेदभाव को बेरहमी से निकाल फेंकने में सफल रही थी।
सरस्वती पत्रिका के सितंबर,1914 के अंक में हीरा डाम की कविता छपी थी। थोड़ा वक्त निकालकर आज जरूरी हो गया है कि इस कविता पर बात की जाए। कविता में एक जगह भगवान को संबोधित करते हुए यह पंक्ति आती है- ‘कहवां सुतल बाटे सुनत न बाटे अब, डोम जाति हमनी के छुए से डेरइले।’ भगवान को पाखंडी, कायर और छूआछूत मानने वाला घोषित करती यह पंक्ति भगवान के सृष्टिकर्ता होने पर भी सवाल उठाती है। हीरा डोम उसी कविता में आगे लिखते हैं- ‘बभने के लेखे हम भिखिया न मांगब जा, ठकुरे के लेखे नहीं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहीं डांडी हम मारबजां, अहिरा के लेखे नहीं गइया चोराइबि।’ भले ही एक झटके में इसमें जातीय विद्वेष की भावना दिख पड़ती हो, लेकिन वास्तव में यह मेहनतकश आवाम का स्वाभिमान है, जो खुद को भीख मांगते ब्राrाणों, लाठी के बल पर दूसरों का हक मारते राजपूतों, डंडी मारते बनियों और गाय चुराते ग्वालों से खुद को अलग करता है।
भले ही ये ऊंची जाति के संपन्न और ताकतवर लोग ही क्यों न हों, लेकिन हीरा डोम ने उनके काम को आदर्श नहीं माना। जीवन को लेकर उनकी स्पष्ट सोच है, वे आगे लिखते हैं- ‘अपने पसिनवा के पइसा कमाइबजा, घर भर मिलि जुलि बांटि चोटि खाइबि।’ यह हिंदी की शायद पहली कविता है, जिसमें मेहनत-मजदूरी करके गुजरबसर करने वालों के स्वाभिमान, दर्द और मोटे तौर पर जाति भेद पर आधारित पर वस्तुत: वर्गभेद की नींव पर खड़े समाज का चेहरा इतने मार्मिक और साफ ढंग से दिखता है।
शताब्दियों पहले की संस्कृत कविता में भी ऐसी अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उसमें गुस्सा कम वेदना ज्यादा होती थी, फिर भी सवाल इतने साफ होते थे कि जिससे टकराने की हिमाकत शासक नहीं कर पाता था। हालांकि ऐसे ज्यादातर कवियों के नाम अज्ञात हैं। एक कविता में फसल के दिन हैं, लेकिन कहीं कोई खुशी नहीं, क्योंकि उन्हें पता है कि सदा की तरह इस बार भी जमींदार के कारिंदे आएंगे और घर-घर से अनाज लूट कर ले जाएंगे और पीछे छूटे खाली घरों में नेवले घूमते रहेंगे।
कविता के अंत में सवाल उठाया गया है- ‘छोड़ जाते हैं लोग/गांव एक एक कर/खाली हो रही है बस्ती आखिर/’ पुरखों की धरती है‘-सिर्फ इसी सोच को/पकड़े रहकर/कितने समय तक टिका रह सकता है कोई?’ उसी काल की एक अन्य कविता में लूट पाट का चित्र इस प्रकार खींचा गया है-‘बस्ती के पेट से अधपचा अधजला मांसखंड खींचकर/सर्रा कर भाग निकलती है/चील-जो मंडराती है चांडालों की बस्तियों के ऊपर।’
इस तरह हम देखते हैं कि शोषण, दमन और अत्याचार के विरुद्ध गूंजते स्वर कविता में हमेशा मौजूद रहे हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? जब समाज इतने विषम रूप से बंटा हो तो इसे कविता का स्वर बनने से कैसे रोका जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा उसे कविता के केंद्र से हटाने की कोशिश हो सकती है, लेकिन यह भी सिर्फ कोशिश भर की बात है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। हीरा डोम की कविता में जो मेहनतकश दिखता है और इसके साथ ही वे तमाम पीड़ित, वंचित चेहरे जो दुनिया की ठोकरें खाकर भी अपना जज्बा बनाए हुए हैं, उन्हें बाद की हिंदी कविता में आसानी से देखा जा सकता है।
बल्कि कहना यह चाहिए कि यही हिंदी कविता का मुख्य चेहरा है। ये ऐसे चेहरे हैं, जिसे न तो शताब्दियों के अंधेरे में कभी दफन किया जा सका और न क्लासिक बनाकर किसी पुस्तकालय में धूल की पतोर्ं के नीचे इसका दम घोंटा जा सका। मुक्तिबोध के यहां यह चेहरा कुछ इस तरह दिखता है- ‘बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा/चेहरा/कि जिस पर कांप/दिल की भाप उठती है।’ नागाजरुन इस चेहरे का बयां इन शब्दों में करते हैं- ‘कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान/बेतरतीब मूंछों की थिरकन’।
और फिर हम देखते हैं कि जब हिंदी कविता इन कवियों से आगे बढ़ती है तो यह चेहरा खुद कवि का चेहरा हो जाता है- ‘भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़ेरिए जैसा चेहरा’(आलोक धन्वा)। जो कवि इस बात से परेशान हो जाते हैं कि कुदाल घर में कहां रखें वे ऐसे चेहरों को देखकर कुछ इस तरह दहशत से भर जाते हैं कि उनके लिए इन पंक्तियों का अर्थ समझना मुश्किल हो जाता है।प्रस्तुतिः मधु

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