भाई राजमणि जी आपने शेर की शादी का किस्सा हाथी और चूहे के माध्यम से सुनाया । कहानी अच्छी है मगर मुझे ख़ास तौर से सुनाने का मकसद?अगर आप मुझे चूहा समझते हैं तो ये आपका बड़प्पन है और अगर शेर समझते हैं तो ज़र्रानवाज़ी का शुक्रिया। मैं हर उस शायर का मुरीद हूँ जो अच्छा लिखता है।
नीरवजी ने जाने से पहले वहाँ की दुश्वारियों का ज़िक्र किया था। मगर क्या करें। हज़रते मीर ने जो ठान लिया, ठान लिया। आज बालस्वरूप राही की एक ग़ज़ल पेश कटा हूँ।
खेतों का हरापन मैं कहाँ देख रहा हूँ
मैं रेल के इंजन का धुआं देख रहा हूँ।
फुर्सत है कहाँ आपके बागात में टहलू
मैं अपने उजड़ने का समां देख रहा हूँ।
खंजर जो गवाही है मेरे कत्ल की उस पर
अपनी ही उँगलियों के निशाँ देख रहा हूँ।
सब आपकी आंखों से जहाँ देख रहे हैं
मैं आप की आंखों में जहाँ देख रहा हूँ।
वो सोच में डूबे हैं, निशाना हो कहाँ पर
मैं टूटे हुए तीर कमां देख रहा हूँ।
जो मैंने खरीदा था कभी बेच के ख़ुद को
नीलाम में बिकता वो मकां देख रहा हूँ।
जिस राह से जाना है नई पीढी को राही
उस राह में इक अंधा कुआँ देख रहा हूँ।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
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जी वाह
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