आज लाइट मेहरबान है तो हमारे कंप्यूटर जी भी पहलवान हो गए हैं, लिहाजा सुबह-सुबह कसरत किए देता हूँ। पता नहीं कब इनका मूड बदल जाए। आज बशीर बद्र की एक ग़ज़ल पेश है।
दूसरों को हमारी सजाएँ न दे
चांदनी रात को बद्दुआएँ न दे।
फूल से आशिकी का हुनर सीख ले
तितलियाँ ख़ुद रुकेंगी, सदाएँ न दे।
सब गुनाहों का इक़रार करने लगें
इस क़दर खूबसूरत सज़ाएँ न दे।
मोतियों को छुपा सीपियों की तरह
बेवफाओं को अपनी वफ़ाएँ न दे।
मैं बिखर जाउंगा, आंसुओं की तरह
इस क़दर प्यार से बद्दुआएँ न दे।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
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