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Tuesday, July 21, 2009

० मकबूलजी आपकी गजल पर एक शेर-
देख कर कोई महलका हो जाए सौदाई नहीं
इसलिए तस्वीर मैंने अपनी खिंचवाई नहीं
चांडालजी मुझे माफ करें।
चांडालजी मुझे माफ करें। मैंने आपकी टिप्पणी को पथिकजी की टिप्पणी पढ़ लिया। प्लीज एक्सक्यूज मी।मगर एक बात तो कहना चाहूंगा कि ज़रा सामने तो आओ छलिए, छुप-छुप छलने में क्या राज़ है,यूं छुप न सकेगा चांडाल तू मेरी आत्मा की ये आवाज़ है। एक गजल के कुछ शेर कह रहा हूं
हमको साथी भी ऐसे मिले
जैसे राजा को टूटे किले
पत्तियां,फूल सब झरे
पेड़ आंधी में ऐसे हिले
हमको चलना भी तो आ गया
पांव पत्थर पे जब से छिले
बोलते तो भरम टूटते
इसलिए होंठ अपने सिले
चोट-दर-चोट खाकर हँसे
खत्म होंगे न ये सिलसिले
अपनी ही गफलतों में रहे
कद्रदानों से कैसे गिले
हम थे नीरव मुखर हो गए
आप जबसे हैं हमसे मिले।
पं. सुरेश नीरव

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