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Thursday, July 23, 2009


मकबूलजी गजल बढि़या है। और टिप्पणी और भी उत्साहवर्धक।
आज पश्यंती की कवयित्री दयावती की कविता पेश करता हूं-
दो रूप
कितना अजीब लगता है एक गोल सिक्का
और उसके दो रूप
एक पहलू संपन्नता का
जहां सिगरेटों के छल्लों में शराब के नशे में
हर शाम रंगीन होती है
फैशन के नाम पर कपड़ा
तन से हटता है और घटता है
दूकरा पहलू विपन्नता का
जहां लकड़ी के कड़वे धुएं पर
अधपकी रोटी मोटी,काली
नमक के सहारे गले के नीचे उतारी जाती है
तन पर सिकुड़ती एक गंदी-सी धोती
फटती है,कटती है किंतु
यह सेक्स प्रदर्शन नहीं
यथार्थ का जीवन से संघर्ष है
ये तो मात्र
गरीबी का दर्शन है।
प्रस्तुतिः पं. सुरेश नीरव

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