कहर कांवरियों का...
कांवर लाने की परंपरा हमारे धर्म में बहुत ही प्राचीन है। और इसका महत्व भी रहा है। खासकर तब जब कि गंगा-जल को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का कोई माध्म नहीं था,कंवरिए पैदल गंगा जल लेकर कोरल और पूना तक पहुंचते थे। श्रवण कुमार तो अपने मां-बाप को लेकर कांवर के जरिए ही सारे तीर्थ करा लाया था मगर आज के कांवरिए कांवर के जरिए क्यों गंगा जल लेने जाते हैं यह आज तक समझ में नहीं आया,जबकि गंगा जल हर जगह वोतलों के जरिए पहंच ही जाता है। और फिर इनका जो ढंग है वह तो किसी संतआत्मा का नहीं होता है। जगह-जगह हुड़दंग मचाते ये कावरिए शर्मिंदगी के दृश्य क्रीएट करते हैं। इन के हुड़दंग के कारण कहीं-कहीं तो स्थानीय लोगों और कांवरियों में झड़प भी हो जाती है। बावजूद इसके कि इनके लिए स्थानीय लोग जगह-जगह इनके स्वागत-सत्कार के लिए तमाम इंतजाम करते हैं। और-तो-और गाजियाबाद,मेरठ,नोएडा से लेकर ऋषिकेश तक सारा परिवहन ही ठप्प हो जाता है। लोग अपने दफ्तरों में टाइम पर नहीं पहुंच पाते हैं. अस्पताल जाते कई रोगी दम तक तोड़ देते हैं। कहां तक उचित है आज के परिवेश में कांवर का निकलना और कहां तक जायज है इनका यह आचरण मैं इस मुद्दे पर आपके भी विचार चाहता हूं। आशा है आप अपने विचार जरूर देंगे।पं. सुरेश नीरव
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