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Tuesday, July 28, 2009

सावन बरसे तो सही।

दो नए सदस्यों का आज फिर स्वागत किया है, मकबूलजी ने। मैं भी स्वागत करता हूं। आज एक-दो टुकड़े पेश कर रहा हूं मगर इससे पहले कल की वारिश की रिपोर्ट भी दे दूं- आफिस से निकले तो बाहर धुंआधार झमाझम बारिश ने स्वागत किया भीगते हुए स्टेशन पहुंचे तो मालूम पड़ा कि तीन ट्रेनें रद हैं और भयानक भीड़ स्टेशन पर मिली। आखिरकार प्रयागराज को लोकल बनाया गया और असमें सारे लोगों को घुसना था इस मशक्कत में मेरा चश्मा टूट कर गिर गया और किसी तरह डब्बे में दाखिल हो सका। गाजियाबाद में स्टेशन पर कोई थ्रीव्हीलर वहीं था पैदल चौधरी मोड़ तक गए तब एक थ्रीव्हीलर मिला जिसमें लगभग बस की सवारियां धुसेड़ी गईं। पुराने बस अड्डे पर भी कुछ नहीं मिला तब एक माल ढोनेवावे टेंपो में खब दुखियारे टढ़ गए जिनमें एक मैं भी था। और किसी तरह मेन रोड पर उतर कर पैदल घर पहुंचा। उङर मकबूल साहब ने ८.०० बजे से ही रिमझिम बरसात का मजा व्हिस्की के साथ अपने घर बैठ कर लिया। अपना-अपना नसीब है,भाई..। मैं तो चश्माविहीन भटकता रहा। फिर १.०० बजे रात में गम गलत किया और अपने शहर की पहली बारिस का मजा लेता रहा। कुछ भी हो सावन बरसे तो सही।
एक कता-
झिड़कना मत झिड़कने में कोई अपना नहीं रहता
तुझे वो जड़ से खोदेगा जो मुंह पे कुछ नहीं कहता
बड़े लोगों से मिलने पर अधारी खूब तुम करना
उधारी का महल कर्जे की तोपों से नहीं ढ़हता।
००
जो नउए भी पउए चढ़ाने लगेंगे
तो गंजे भी चुटिया बढ़ाने लगेंगे
कहीं भूल से कट गईं तेरी मूंछें
उगाने में तुझको ज़माने लगेंगे।
पं. सुरेश नीरव

1 comment:

राकेश 'सोहम' said...

पंडित जी, पहले आपने अपनी परेशानी की कहानी कही फिर ये कि -
जो नउए भी पउए चढ़ाने लगेंगे
तो गंजे भी चुटिया बढ़ाने लगेंगे
कहीं भूल से कट गईं तेरी मूंछें
उगाने में तुझको ज़माने लगेंगे।

आदरणीय पंडित जी, गत रात्रि जब आप अपना गम गलत कर रहे थे हम भी कम ग़मगीन न थे . सोचते रहे काश हम क्यों न लिख सके आप सा आयं, क्यों न बन सके आप सा....
फिर हमारी चुटिया ने संकेत दिए कि
जिंदगी में अगर कुछ बनना हो
कुछ हासिल करना हो तो
हमेशा अपनें दिमाग कि सुनो
अगर दिमाग से भी कोई जवाब ना आए तो
आँखें बंद करके सोचो...

'नीरव' जी मैंने सोचा -
"क्या मेरे पास दिमाग है ???????? !!!!"

अब आप ही बताओ तो बात बनें.
प्रणाम !
[] राकेश 'सोऽहं'