अवकाश के बाद
कल मैं कार्यालय नहीं आया,अवकाश ले लिया। कुछ ज़रूरी नहीं था मगर बहुत जरूरी था अवकाश लेना। भीतक रोज़ कुछ मरता है दफ्तर आने और वापस घर चले जाने में। कोल्हू के बैल की तरह एक दायरें में घूमती ज़िंदगी बहुत ऊब पैदा करती है। अपने को बचाने के लिए तब लगता है कि छुट्टी ही ले ली जाए। घबराकर छुट्टी ले डाली और जायजा लिया उस दुनिया का जहां रोज़ कुछ नया होता है। सबसे पहले दूरदर्शन पर मुझे भोपाल से आए कवि कैलाश मड़वैया का साक्षात्कार लेना पड़ा,बड़ा रोचक बाकया रहा। इसके बाद आकाशवाणी में प्रयाग शुक्ल,कन्हैया लाल नंदन,राजकुमार सचान, कुंअर होदैन,बालस्वरूप राही की गोष्ठी थी। साम को इंडिया इंटरनेशनल में चौधरी रघुनाथ सिंह,पुष्कर बिड़ला.दूरदर्शन के महा प्रबंधक बशरदक खान,राजकुमार सचान और रमाकांत पूनम के साथ लजीज डिनर लिया तमाम इधर-उधर की बातें हुईं और फिर घर आ गए। रात में मकबूलजी ने फोन किया कि मैं ब्लॉग पर क्यों नही दिखा तो मैंने अपनी सफाई पेश की। अब मेरे और चाहनेवाले परेशान न हों इसलिए मैंने तफ्सील से कल का बाकया लिख दिया है। उम्मीद है कि इसे पढ़कर सभी राहत की सांस लेंगे।
ब्लॉग पर मकबूलजी, प्रदीप शुक्ला,अरविंद पथिक और राजमणिजी को देखा तो लगा कि मेरे पीछे भी कुछ लोग हैं जो व्लॉग को ज़िंदा रखे हुए हैं। इन सभी बंधुओं को बधाई देता हूं।
आज पश्यंती की कवयित्री मधु मिश्रा की कविता दे रहा हूं
तपते सूरज-सा मन
आग-आग होती आंखें
प्रतीक्षारत हैं न जाने कब से
कितनी-कितनी बार भीगी हैं
आस की पगडंडियां
विरह के आंसुओं से
लेकिन हर बार उगे हैं
इन गीली पगडंडियों पर
संभावनाओं के पदचिन्ह
हर बार गूंजे हैं
मन के सन्नाटे में
उम्मीदों के पदचाप
सुबह की हर किरण के साथ
खिलते हैं
सूरजमुखी इच्छाओं के गुंचे
जो मुझे दे जाते हैं
बसंत के आगमन का
और मैं तितली की तरह
हर फूल में की पांखुरी में पढ़ती हूं
अपने जीवन के उत्सव होने की संभावना को
संभावना जो प्रतीक्षा है
और प्रतीक्षा जो संभावना है।
मधु मिश्रा
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