नीरवजी आपकी छुट्टी की फिलासफी पढ़ी,सचमुच रुटीन की जिंदगी से मन ऊब जाता है और तब लगता है कि छुट्टी लेकर कहीं दूर निकल लिया जाए,फ्र्सत के लम्हों को अपने अंदाज में जीने के लिए..जहां न गम हो न आंसूं हैं बस प्यार मुहब्बत की बातें हों, नदी हों,झरने हों फूल हों और खुशबू हो। मधु मिश्रा की कविता बेहद अच्छी लगी। मधु को मेरी तरफ से बधाई। मकबूवजी की गजल बहुत बढिया है। पथिकजी बहुत दिनों बाद दिखे। दफ्तर की पीढ़ा से परेशान। आजकल माहौल ही कुछ ऐसा हो गया है कि संवेदवशील आदमी के लिए जिंदगी ही एक बोझ बनती जा रही है। लोकमंगल पर कुछ दिल के गुबार विकल जाते हैं तो मन हल्का हो जाता है। सभी बलागर-बंधुओं और बहनों को सत स्री अकाल।
मधु चतुर्वेदी
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