भूख की आग में बच्चा पत्थर हो जाना चाहता है ताकि उसे भर पेट भोजन का प्रसाद मिल सके समीरजी की कविता बहुत मार्मिक है। नीरवजी की गजल गुदाभंजक है। और फना साहब की गजल में तो बड़ी जान है। मधुजी की टिप्पणी पर क्या टिप्पणी करूं कर ।दूंगा तो टिपटिपाती रह जाएंगी। बंसजी तो बेचारे वैसे ही प्रसुप्त और प्रलुप्त होते प्रणी हैं। मगर अब रोज़ दिख रहे हैं इससे लगता है कि हंसों का पुनर्वास लोकमंगल के जरिए हो ही जाएगा। पथिकजी अपने बास की ऐसी-की-तैसी करने में जुटे हैं। फुर्सत मिले तो ब्लॉग लिखेंगे। कर्मल विपिनजी कहां हैं कुछ अता-पता नहीं चल रहा, नीरवजी उन्हें खोजिए न। शबी बंधुओं को जय लोक मंगल।
चांडाल
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