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Thursday, July 16, 2009

कांवरियों का कहर

मैं नीरव जी एवं चांडाल जी से शत प्रतिशत सहमत हूँ। ये कांवरिये किसी आस्था के तहत कांवर लेकर नहीं जाते वरन ये वो ठलुए लोग हैं जिन्हें कोई काम नहीं है और इस बहाने २-४ दिन के लिए हुडदंग की खुली छूट मिल जाती है, साथ में मुफ्त के भोजन और नशा- पत्ता भी। इसकी वजह से १०-१५ दिन दिल्ली से लेकर हरद्वार तक समस्त यातायात रुक जाता है एवं लोगों के व्यवसाय में नुक्सान भी होता है।
आज बेहज़ाद लखनवी की एक ग़ज़ल प्रस्तुत है।
उन आंखों का आलम गुलाबी गुलाबी
मेरे दिल का आलम शराबी शराबी।

निगाहों ने देखी, मुहब्बत ने मानी
तेरी बेमिसाली, तेरी लाजवाबी।

ये दुद- दीदा नज़रें, ये रफ्तारे- नाज़ुक
इन्हीं की बदौलत हुई है खराबी।

खुदा के लिए अपनी नज़रों को रोको
तमन्ना बनी जा रही है जवाबी।

है बेहज़ाद उनकी निगाहें- क़रम पर
मेरी ना- मुरादी मेरी कामयाबी।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल

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