मैं तो पश्यंती में शुमार नहीं हो पाई लेकिन संकलन देखने के बाद इच्छा जरूर हुई थी कि कुछ लिखूं। आज जब ब्लॉग पर पश्यंती के ही कवि छाए हुए देखे तो मैंने भी मुकेश परमार को चुना है। आज की कविता- ( संपादकजी से अनुमति लेते हुए) भीतर का संसार
मैं सोचता हूं कि
वह वक्त कभी तो आएगा
जब मैं अपने भीतर को
कर सकूंगा अभिव्यक्त
जो सदियों से है अव्यक्त
कभी तो सुना पाउंगा
मन के जंगल में चहकते
परिंदों के स्वर समाज को
पर्वत,नदी,जंगल
क्या कुछ नहीं है मुझमें
बस तलाश है शब्दों की
जिनमें भीतर का ये संसार ढाल सकूं
लावारिस भावनाओं को
कविता के घर पाल सकूं।
सौजन्यःमधु चतुर्वेदी
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