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Friday, July 17, 2009

कांवरियों का कहर

भाई राजू जी के विचार देखे। बज़ा फरमाते हैं राजू जी। समस्या ये है कि हज यात्री आम लोगों की ज़िन्दगी में इतना खलल नहीं डालते। हमें कांवरियों से कोई परेशानी नहीं है। परेशानी है उनकी वजह से पैदा हुए अनावाशक कष्टों से। पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी छेत्र को रहन पर रखने से है। एक तो मौसम की बेईमानी ऊपर से कांवरियों का कहर। ज़िन्दगी अजाब हो कर रह गई है। उम्मीद है भाई राजू जी इस पहलु पर भी विचार करेंगे। आज नज़ीर बनारसी की एक ग़ज़ल पेश है।

ये इनायतें गज़ब की, ये बला की मेहरबानी
मेरी खैरियत भी पूछी, किसी और की ज़बानी।

मेरा ग़म रुला चुका है, तुझे बिखरी ज़ुल्फ़ वाले
ये घटा बता रही है कि बरस चुका है पानी।

तेरा हुस्न सो रहा था, मेरी छेड़ ने जगाया
वो निगाह मैंने डाली कि संवर गई जवानी।

मेरी बे-ज़ुबान आंखों से गिरे हैं चंद क़तरे
वो समझ सके तो आंसू, न समझ सके तो पानी।
मृगेन्द्र मकबूल

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