एक गजल मुंबई से लौटकर..
अपनी नजर में जो कभी अदना नहीं हुए
इस ज़िंदगी में वो कभी तन्हा नहीं हुए
हंसने की आदतें मेरी अब तक नहीं गईं
यूं जिंदगी में हादसे क्या-क्या नहीं हुए
पलकों की छांव की जिसे पल-पल तलाश है
ऐसा भटकता हम कोई सपना नहीं हुए
खुद अपनी आंच में दिये-सा जो जले न वो
अहसास की नज़र का वो उजाना नहीं हुए
सागर हुई हैं लहरें जो सागर में खो गईं
सिमटे रहे जो कतरे वो दरिया नहीं हुए
उन गुलशनों के नाम पर आती हैं रौनकें
जो जलजलों के बाद भी सहरा नहीं हुए
बढ़ते कदम को रोकना जिनका रहा है शग्ल
दीवार तो बने कभी रस्ता नहीं हुए
मिलती हैं शौहरतें यहां रुसवाइयों के बाद
गुमनाम ही रहे जो तमाशा नहीं हुए
नींदों के गांव की जिसे हर पल तलाश है
अच्छा हुआ कि ऐसा हम सपना नहीं हुए।
पं, सुरेश नीरव
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