भाई मृग्रेंद्र मकबूल जी की वह ग़ज़ल आज पड़ने को मिली जो उन्होंने अभी मात्र कुछा दिन पूर्व ही मुंबई के इस्क्कों के सभागार मैं पड़ कर मंच से जनता जनार्दन का दिल लूटा तहत और बहुत वाहवाही पाई थी । इस ग़ज़ल जब मंच सुनाया तो लोगों को अंदाजे बयां बहुत की गजब का लगा था। इस लोक मंच सब को उन सभी समझदार लोगों को जोड़ने की कोशिश की जो देश के लिए बहुत कुछा सोचते हैं पर मज़बूर हैं कि वह अपनी बात किस उचित मंच से उचित मध्यम के किए रख सके । मैं कई दिनों से देहली मैं ही घर परिवार को लेकर शहर के मध्य क्षेत्र कनात प्लेस से निकल कर शहर के के आखरी हिस्से मैं पहुँच गया हूँ, परिवर्तन कि इस दौर मैं घर परिवर्तन बहुत ही कष्ट करक कम है और खास तोर पर उनके के लिए जिन्होंने अपनीं पुरी जिंदगी ही सरकारी माकन आदि कि सुख सुविधाओं के मध्य गुजारी हो । इस संधर्भ मुझे याद आ रही बोस्निया मैं एक नियम है कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी सरकारी मकान सेवा निवर्त के बाद भी रखना चाहत है तो वह कुछ अतिरिक्त पैसा देकर उस मकान को सेवा निवर्त के बाद भी उस मकान को रख सकता है अपनी बाकि जिंदगी के लिए ।। क्या ही अच्छा होता अगर भारत सरकार भी इसी प्रकार मकान अपने कर्मचारियों के लिए बनाया करे । साथी विचार कर के देखे क्या यह विचार हम जैसे सरकारी कर्मचारियों के लिए ठीक है कि नन्ही । मधुजी का निमंत्रण था परन्तु इस घर परिवर्तन कि प्रक्रिया से सब कुछा बिगड़ गया है।
मुनीन्द्र नाथ
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