आज बहुत दिनों के बाद अपने कंप्यूटर से टाइप करने की सुविधा मुझे मिल सकी है। मैं अत्यंत प्रसन्न हूं और एक गीत लिख रहा हूं-
सांसों के आंगन में झूम गई गंध
फूट पड़े तन-मन से सोमरसी छंद
नयनों के प्रष्ठ बने कविता के बंद
मौसम ने लिख दिए हैं कुमकुमी निबंध
गुलमोहरी जंगल में हुई गीत भोर
किऱणों की नई ग़ज़ल बांच रहे मोर
बातूनी हो गईं रेशमी हवाएं
बरस गईं आंखों से सांवली अदाएं
गुदगुदी-सी अंगड़ाई दौड़ने लगी
बांहों के अमलताश तोड़ने लगी
छांव में सुलग उठी बर्फ की हिलोर
गुलमोहरी जंगल में हुई गीत भोर।
किरण गंध फैल गई धूप की फुहार
जलतरंग हो गई रूप की बहार
मदमाती ऋतु हवाएं खिलखिला उठीं
फुलझड़ियां यादों की झिलमिला उठीं
चीनी के बर्तव -सा टूट गया शोर
गुलमोहरी जंगल में हुई गीत भोर
सुबह की खिड़की से झांकते गुलाब
उतर गया दर्पण में रात का शबाब
लहरो की अंजुरी में किरणों के फूल
अंतस में कांप गई अनब्याही भूल
पुरवा ने गीत गाए होकर बरजोर
गुलमोहरी जंगल में हुई गीत भोर?
पं. सुरेश नीरव
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