ज़हर कोई हंस कर निगलता नहीं है
क्यूँ शंकर सा कोई निकलता नहीं है।
यूँ बैठे हैं महफ़िल में चेहरे हजारों
मगर दोस्त कोई भी मिलता नहीं है।
कुछ ऐसी है रंगत तेरी शोखियों की
जो सूरज सहम कर निकलता नहीं है।
भले मोम ही का है दिल ये हमारा
लगे आंच कितनी पिघलता नहीं है।
समंदर में यूँ तो हैं मोती हज़ारों
जो हम ढूंढते हैं वो मिलता नहीं है।
गज़ब की कशिश है तेरी शख्शियत में
पर मक़बूल यूँ ही फिसलता नहीं है।
मृगेन्द्र मक़बूल
No comments:
Post a Comment