भाई रूपेश जी की शानदार मूंछें देख कर तबियत बाग़- बाग़ हो गई। मूंछें हों तो ऐसी, जिस की शान में गुस्ताखी करने की जुर्रत किसी की न हो। लगता है रुपेश जी के किरायेदार ने मूछों की शान में कोई गुस्ताखी की होगी कि रूपेश जी को उसे जुतियाना पड़ा। आज अहमद फ़राज़ कि एक ग़ज़ल पेश है।
ज़ख्म को फूल तो सर- सर को सबा कहते हैं
जाने क्या दौर है, क्या लोग हैं, क्या कहते हैं।
क्या क़यामत है कि जिनके लिए रुक- रुक के चले
अब वही लोग हमें आबलापा कहते हैं।
कोई बतलाओ कि इक उम्र का बिछड़ा महबूब
इत्तिफ़ाकन कहीं मिल जाए तो क्या कहते हैं।
जब तलक दूर है तू, तेरी परस्तिश करलें
हम जिसे छू न सकें उसको ख़ुदा कहते हैं।
क्या ताज्जुब है कि हम अहले- तमन्ना को फ़राज़
वो जो महरूमे- तमन्ना हैं बुरा कहते हैं।
मृगेन्द्र मक़बूल
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