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Saturday, August 1, 2009

मेरे मन की तपन अछूती

नीरवजी मधुजी की कविता बहुत अच्छी लगी। आज मैं भी एक गीत दे रही हूं... मकबूलजी,राजमणिजी गौर फरमाएं...
मेरे मन की तपन अछूती
मेरे मन की तपन अछूती सुख की ठंडी छांव में
अनजाने में गुज़र गए ये पग, सपनों के गांव में
चाहों की नगरी में घायल मन क्यों मारे फेरा
दुर्बल तेरे पंख कठिन हैं कुंठाओं का घेरा
भोले फंछी बचकर रहना कुटिल काल के दांव से।
सुख से क्या लेना वो छलिया छद्म वेश में आए
छल के भोली आशाओं को पल भर में उड़ जाए
पीढ़ा का स्थाई नाता है इस मन की ठंव से।
कोमल भावुक मेरी कल्पना ये कांटों का वन है
अस्त-व्यस्त सी फिरे बावरी पीड़ा हुई सघन है
कौन निकाले अनगिन कांटे असके नंगे पांव से?
डॉ. मधु चतुर्वेदी

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