कल शाम भाई मुनीन्द्र नाथ चतुर्वेदी से वार्तालाप हुआ। उन्होंने बताया कि वो अभी नए घर में व्यवस्थित नहीं हो पाए हैं और कुछ पावर कि भी समस्या है जो अगले २-३ दिनों में ठीक हो जाएगी। समस्या का समाधान होते ही वो ब्लॉग पर नज़र आएँगे। हम कामना करते हैं वो जल्द ही व्यवस्थित हों और हम उनके विचारों से लाभान्वित हों।
आज एक नई ग़ज़ल पेश है।
पीते रहे हैं शाम से आंखों के जाम से
अब ज़रा दूर रखो कांच के पैमाने को।
बिजलियाँ, काली घटा, चाँद से रौशन चेहरे
फिर सुनाएंगे कभी चैन से अफ़साने को।
उम्र तो बीत चली इंतज़ार में अपनी
कब क़रार आएगा साकी तेरे दीवाने को।
झांसे में सरकार के खेत गंवाए हमने
अब कट रही है ज़िन्दगी देख के वीराने को।
जानता है कि किस्मत है जल के मर जाना
फिर भी शम्मा से रही दोस्ती परवाने को।
मृगेन्द्र मकबूल
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