Search This Blog

Friday, August 21, 2009

हम ने पसीना बोया तो बंजर चमन हुआ

हम ने पसीना बोया तो बंजर चमन हुआ
धरती का स्याह कोना भी उजला चमन हुआ।

मेहनत करी जो तू ने ख़ुद हड्डी निचोड़ के
महकी हुई फ़सल सा ये तेरा बदन हुआ।

धरती चुरा के फ्लैट तो हम ने बना लिए
खेती उजाड़ने का ये कैसा जतन हुआ।

करते किसान ख़ुद- कुशी क़र्ज़े में डूब कर
क्यूँ यारो ख़स्ता- हाल ये मेरा वतन हुआ।

हँसते हुए खलिहान से फ़सलों ने ये कहा
मकबूल मंदिरों में ये श्रम का हवन हुआ।

मृगेन्द्र मकबूल

3 comments:

रंजना said...

लग रहा है जैसे अपने ही मन के भावों को शब्दों में साकार देख रही हूँ....मन मोह लिया आपकी इस रचना ने.....वाह !!!

यथार्थ को बड़ी ही सार्थकता से मर्मस्पर्शी बना आपने प्रस्तुत किया है.....विचारोत्तेजक सुन्दर रचना के लिए आपका साधुवाद.

अशरफुल निशा said...

Bahut Sundar.
Think Scientific Act Scientific

समय चक्र said...

बहुत खूब अच्छी रचना ने आभार