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Saturday, August 29, 2009

तकलीफें जब भी झांकती हैं


आलपीन बिखरे रास्तों पर छाले मढ़े पांव से चलते-चलते यायावर मन को आमंत्रण है,पूनम के चांद की किरणों के साथ थिरकने काछ दर्द जहां उत्सव है और आंसू पर्व, मन की उस स्थिति तक पहुंचकर सन्नाटे की घाटियों में शब्द जहां बांसुरी हो जाते हैं, ध्यान की उस अवस्था का नाम ही मधु मिश्रा की कविता है--सुरेश नीरव
शब्द
तकलीफें जब भी झांकती हैं
आत्मा की खोल से
भावना का अद्रश्य धागा
उन तकलीफों को बुनकर
शब्द बना देता है
और ये शब्द
अभिव्यक्ति के जंगल में
बेसहारा छोड़ जाते हैं
तड़फता हुआ-अकेला-मुझे
अर्थ हो जाने के लिए
और लोग...
अपने-अपने संस्कारों से
मेरे मैं का अर्थ लगाते रह जाते हैं
और अनुभूतियों की निश्छल आंखें
हतप्रभ इन उर्थोंके
कद नापती रह जाती हैं
और मैं रेशा-रेशा अर्थों के इन
गहरे नीलेपन में
डूबती जाती हूं
और दूर कहीं
संवेदना के शब्दहीन क्षितिज पर
कई अनबुझे प्रश्न-टूटते तारे की तरह
समीक्षा की अंधेरी खाई में में डूब जाते हैं
और तब शब्द और अर्थों के बासंती संबंध
किस तरह ऊब जाते हैं
इस सांस्कृतिक पीढ़ा को
वही समझ सकता है
जिसने अपनी सांसों में कभी
ऋचाओं को टांकने का प्रयास किया हो
या फिर
ज़िंदगी की हथेली पर
मौत का अहसास जिया हो।
मधु मिश्रा

1 comment:

M VERMA said...

इस सांस्कृतिक पीढ़ा को
वही समझ सकता है
जिसने अपनी सांसों में कभी
ऋचाओं को टांकने का प्रयास किया हो
बेहतरीन रचना --- सांसो मे ऋचाओ को टांकना.