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Saturday, August 29, 2009

मुनीन्द्र नाथ चौबे जी

नीरवजी.आपकी गजल पकी-पकाई खीर के पास पढ़ी.मन प्सन्न हो गया.। आपने जो अशोक मनोरम की दी ङुई तर्ज पर लिखा, वह कलाम भी काबिले ताऱीफ है? मकबूलजी ने अहमद फराज की बढिया ग़ज़ल दी है। मुनीन्द्र नाथ चौबे जी नए मकान में पहंच गए, यह तो ठीक है मगर उन्हें हाउसवार्मिंग पार्टी जरूर देनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है बाकी मैं तो पालागन के अलावा और क्या कह सकता हूं? सब चुपचाप देख लूंगा और सह लूंगा। बकौल पं. सुरेश नीरव-
देखा नहीं जाता मगर देख रहे हैंहम देखनेवालों की नज़र देख रहे हैं..
सभी ब्लागर बंधुओं को जय लोक मंगल।
भगवान सिंह हंस

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