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Thursday, August 27, 2009

मंच पर नीरव दुबारा मिल गया होता

मिल गया होता
किसी अंधे को लाठी का सहारा मिल गया होता
अगर उस दिन तेरा छत से इशारा मिल गया होता
न लेकर बैंड तुम आते न बजता तेरी शादी में
न कश्ती डूबती मेरी किनारा मिल गया होता
न भरते कान डैडी के तुम्हारे घर छुपे दुश्मन
जन्मपत्री में दोनों का सितारा मिल गया होता
जुटाकर ईंट रोड़ों को बनालेते नया कुनबा
अगर भानुमतीजी का पिटारा मिल गया होता
बगल में महिला कालिज के जो अपना घर बना होता
निगाहों को बड़ा दिलकश नज़ारा मिल मिल गया होता
सहर होते ही मंदिर में जो तू जाती भजन करने
तेरे भजनों के सुर में सुर हमारा मिल गया होता
छुड़ाकर पिंड कविता से बड़ा अच्छा किया तूने
नहीं तो मंच पर नीरव दुबारा मिल गया होता
पं. सुरेश नीरव

1 comment:

ACHARYA RAMESH SACHDEVA said...

BAHUT KHOOB.
CHULBULI BAATE LEEK SE HAT KAR.
PYAR ME VISHVAS AUR SANSKAR.
COLLEGE KI YAAD ME DIL H SAAF.
RAMESH SACHDEVA
hpsdabwali07@gmail.com