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Monday, January 4, 2010

ज़िन्दगी, जैसी तमन्ना थी, नहीं कुछ कम है

ज़िन्दगी, जैसी तमन्ना थी, नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास, कहीं कुछ कम है।

घर की तामीर, तसव्वुर में ही हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़, ये जगह कुछ कम है।

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात, कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यक़ीं कुछ कम है।

अब जिधर देखिए, लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है, कही कुछ कम है।

आज भी है, तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं, कुछ कम है।
शहरयार
प्रस्तुति-मृगेन्द्र मक़बूल

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