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Monday, January 11, 2010

मिले ग़म से अपने फुर्सत, तो सुनाऊं वो फ़साना

मिले ग़म से अपने फुर्सत, तो सुनाऊं वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से, मये- इशरते- शबाना।

यही ज़िन्दगी मुसीबत, यही ज़िन्दगी मसर्रत
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त, यही ज़िन्दगी फ़साना।

कभी दर्द की तमन्ना, कभी कोशिशे- मदावा
कभी बिजलियों की ख्वाइश, कभी फिक्रे- आशियाना।

मेरे कहकहों की ज़द पर, कभी गर्दिशें जहां की
मेरे आंसुओं की रौ में, कभी तल्खी-ऐ- ज़माना।

कभी मैं हूँ तुझसे नाला, कभी मुझसे तू परीशां
कभी मैं तेरा हदफ़ हूँ, कभी तू मेरा निशाना।

जिसे पा सका न जाहिद, जिसे छू सका न सूफी
वही तीर छेदता है, मेरा सोज़े- शायराना।
मोईन अहसन जज़्बी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस गज़ल को प्रस्तुत करने का!!

Maqbool said...

shukriyaa.
maqbool