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Friday, January 22, 2010

क्या ये भी ज़िन्दगी है कि राहत कभी न हो

क्या ये भी ज़िन्दगी है कि राहत कभी न हो
ऐसी भी तो किसी से मोहब्बत कभी न हो।

वादा ज़रूर करते हैं, आते नहीं कभी
फिर ये भी चाहते हैं, शिकायत कभी न हो।

शामे- विसाल भी, ये तगाफुल, ये बेरुख़ी
तेरी रज़ा है, मुझको मसर्रत कभी न हो।

अहबाब ने दिए हैं मुझे किस क़दर फ़रेब
मुझसा भी कोई सादा तबीयत कभी न हो।

लब तो ये कह रहे हैं कि उठ, बढ़ के चूम ले
आँखों का ये इशारा, कि जुर्रत कभी न हो।

दिल चाहता है फिर वही फुर्सत के रात- दिन
मुझको तेरे ख़याल से फ़ुर्सत कभी न हो।
कृष्ण मोहन
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

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