उम्र गु़ज़री है आजमानें में
कोई अपना नहीं ज़माने में
दोस्त मुश्किल से एक-दो होंगे
इतने बैठे हैं शामियानें में
पहले आते तो मदद कर देते
टाल दी बात यूं बहाने में
इक चवन्नी है बस खजाने में
शर्म आती है ये बताने में
रात ग़ुज़री है गुसलखाने में
क्या खिलाया था तूने खाने में।
पं. सुरेश नीरव
2 comments:
जमाल घोटा :)
हा हा हा गोदियाल जी के कमेन्ट पर हंसी आ गयी । सुन्दर गज़ल है धन्यवाद्
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