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Tuesday, January 5, 2010

रात ग़ुज़री है गुसलखाने में

ग़ज़ल

म्र गु़ज़री है आजमानें में
कोई अपना नहीं ज़माने में

दोस्त मुश्किल से एक-दो होंगे
इतने  बैठे  हैं  शामियानें में

पहले आते तो मदद कर देते
टाल दी बात यूं बहाने में

इक चवन्नी है बस खजाने में
शर्म आती है ये बताने में

रात ग़ुज़री है गुसलखाने में
क्या खिलाया था तूने खाने में।
पं. सुरेश नीरव

2 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

जमाल घोटा :)

निर्मला कपिला said...

हा हा हा गोदियाल जी के कमेन्ट पर हंसी आ गयी । सुन्दर गज़ल है धन्यवाद्