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Friday, January 8, 2010

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है

बदलते वक़्त का इक सिलसिला सा लगता है
कि जब भी देखो उसे दूसरा सा लगता है।

तुम्हारा हुस्न किसी आदमी का हुस्न नहीं
किसी बुज़ुर्ग की सच्ची दुआ सा लगता है।

तेरी निगाह को तमीज़ रंगों- नूर कहाँ
मुझे तो खून भी रंगे- हिना सा लगता है।

दमागो- दिल हो अगर मुतमइन तो छाँव है धूप
थपेड़ा लू का भी ठंडी हवा सा लगता है।

वो छत पे आ गया बेताब हो के आखिर
खुदा भी आज शरीके- दुआ सा लगता है।

तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा सा लगता है।

निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से
तमाम शहर का मंज़र खुला सा लगता है।
मंज़र भोपाली
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

2 comments:

निर्मला कपिला said...

हर एक शेर कमाल का है बधाई

Maqbool said...

shukriyaa nirmala kapila ji.
maqbool