तुम्हारा हाथ जो आया है हाथ में मेरे
अब ऐतबार का मौसम हरा सा लगता है।
निकल के देखो कभी नफरतों के पिंजरे से
तमाम शहर का मंज़र खुला सा लगता है।
मंज़र भोपाली की ग़ज़ल लाजवाब है। मकबूलजी ग़ज़ल पढ़कर मौजा-ही-मौजा आ गया। बेहतरीन शेरों के लिए आप को शुक्रिया कहने को मन बेताब है। कुबूल फरमाएं। आपने शास्त्रीजी के पास चलने का कार्यक्रम कब का बनाया है। कृपया बताएं।
इसाक अश्क की गीतमयी रचना बहुत रेशमी है। राजमणिजी आपने कई दिनों बाद एक अच्छे गीत से रूबरू करवाया है। आप धन्यवादी हो गए हैं। इन पंक्तियों का तो जवाब ही नहीं है-
दसों दिशाएँ
विजन
डुलाने-
लगी हवाएँ
दुनिया से
बेखौफ हवा में
चुम्बन कई उछाल गया मौसम।
सुरेश नीरव
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