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Monday, February 1, 2010

तबस्सुम तुम तो मुस्कान थीं सिसकी कैसे बन घईं

 लेखकः संजय अभिज्ञान 
डियर तबस्सुम

मेरा आदाब कबूल करें। अगर जेहन में सत्तर के दशक वाले टीवी कार्यक्रम ‘फूल खिले हैं गुलशन-गुलशन’ की यादें दर्ज न होतीं तो ये ख़त लिखने की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन चूंकि वे यादें अपनी जगह कायम हैं और चूंकि अपने लड़कपन में आपको देखकर मुझे लगता था कि आप ही दुनिया की सबसे खूबसूरत और सबसे समझदार औरत हैं और चूंकि आपसे जुड़ी एक हालिया खबर बार-बार मुझे परेशान कर रही है, मैं कलम उठाने पर मजबूर हो चला हूं।
खबर कोई दो महीने पुरानी है। मुंबई के मुनीर खान नाम के एक डॉक्टर के फरार होने की जानकारी उसमें थी। पता यह चला था कि वरसोवा में रहने वाले ये डॉक्टर साहब कोई चमत्कारी गुण रखते थे और कैंसर-एड्स से जूझते मरीजों को भी मौत के मुंह से वापस खींच लाते थे। यह चमत्कार एक करामाती दवा की शीशी से होता था जिसके लिए ये जनाब 15 हजार से 20 हजार रुपये तक वसूलते थे। भांडा फूटा तो पता चला कि शीशी में मीठे पानी के अलावा सिर्फ फरेब, धोखाधड़ी और बेईमानी का जहर ही होता था। कुछ भुक्तभोगी रिश्तेदारों ने जब मरीज और रकम दोनों को खोकर थाने में शिकायत दर्ज कराई और जब डॉक्टर के नाम वारंट जारी हुआ तो पता चला कि मुल्क के हजारों-लाखों दूसरे नीम हकीमों और झोला छाप डॉक्टरों की तरह वह भी बीमारी से मरते लोगों का शोषण करने वाला एक आला दर्जे का काइयां ही था!
तबस्सुम जी, भले ही उम्र में आपसे कोई बीस पच्चीस साल छोटा हूं लेकिन अपने बीसेक साल के जर्नलिज्म कॅरियर में दवा के नाम पर जहर देने वाले हजारों कंबख्तों के बारे में पढ़ चुका हूं। लेकिन इस खबर को पढ़कर अगर मैं चौंक उठा और उदास भी हो गया तो उसकी वजह सिर्फ यह थी कि डाक्टर मुनीर का चेहरा देखकर मुझे फौरन आपका चेहरा याद आ गया।
ब्लॉग पर आने वाले मेहमानों के लिए साफ कर दूं कि तीन-चार माह पहले जब मैं ऑफिस से देर रात घर पहुंचता था तो खाना खाते ही बिस्तर पर न जाने की बड़े-बूढ़ों की हिदायतों को ध्यान में रखते हुए टीवी का स्विच ऑन कर लेता था। चूंकि ग्यारह-बारह बजे के बाद न्यूज चैनल बासी माल परोसने लगते हैं और चूंकि हर दूसरे चैनल की स्क्रीन पर लाइव गेम या जुआ खेलने के लिए अश्लील तरीके से फोन करने का आमंत्रण देती लड़कियां ही होती थीं तो डिस्कवरी या नेशनल ज्योग्राफिक जैसे चैनल ही मेरे वक्त और मेरी पसंद के साथ इंसाफ करते थे। उन दिनों अक्सर प्रोग्राम के बीच में बिन बुलाए मेहमान की तरह स्काईशॉप सरीखे कई मिनट लंबे विज्ञापन आ जाते थे। उन्हीं में से एक लंबे विज्ञापन में मुझे आप बेहद मीठे कसीदे पढ़ते हुए एक डॉक्टर के नूरानी हुनर के बारे में बताती नजर आती थीं।
तब मैं चमत्कार वगैरह पर इस बेहद लफ्फाजी भरी तारीफ से परेशान तो होता था लेकिन सिर्फ इसलिए पूरा विज्ञापन देख लेता था कि उसमें मुझे अपने बुढ़ापे को पटखनी देती अपनी एक पुरानी रोल मॉडल नजर आती थी और मैं इस बात पर हैरान होता था कि उम्र की बारिश ने आपकी आवाज के पोस्टरों को गला नहीं दिया है और वही खनक, वही लटके-झटके अब भी आपके पास हैं। आंखें मटका कर बहुत साफ उर्दू बोलने के, सही वक्त पर इंटरव्यू देने वाले को टोक देने के और माहौल में अपनी बातों से कौतुहल जगाए रखने के अपने बरसों पुराने हुनर की रास लगातार थामे रखने की आपकी काबिलियत मुझमें एक सम्मोहन सा भर देती थी और मैं बीवी के शिकवों को अनसुना करते हुए आपके मुंह से डाक्टर के कसीदे सहन करता रहता था। मैडम, आखिर यही तो गुण थे जिन्होंने साठ और सत्तर के दशक में अमीन सायानी को रेडियो किंग और आपको टीवी क्वीन का खिताब दिलाया था!
इसलिए मुझे फौरन याद आ गया कि आप टीवी के विज्ञापन में जिस डॉक्टर की तारीफ के पुल बांधती थीं, शानदार लफ्जों के साथ अपनी जिंदगी का समूचा तजुर्बा जिस डॉक्टर को खुदाई खिदमगगार साबित करने में झोंक देती थीं, वो डॉक्टर, वो झोलाछाप, वो भगोड़ा दरअसल वही था जिसकी फरारी की खबरें मुंबई के हर छोटे-बड़े अखबार में छपी थीं और जिसने मजबूरों को निचोड़ने का एक कीर्तिमान जैसा बना लिया था। तबस्सुम जी सवाल यह नहीं है कि आप एक विज्ञापनी झूठ का हिस्सा क्यों बनीं? विज्ञापनी झूठ से आज कौन अछूता है! बड़े महानायक, सुपरस्टार, किक्रेट के भगवान, सब ही तो बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। लेकिन जाने अनजाने आपसे एक और भी गलत काम हो गया। जरा सोचिए। इस तरह की करामातों और चमत्कारों और अंधविश्वासों के विज्ञापन..! टेलीविजन की जिस मलिका ने देश के सबसे उम्दा संगीतकारों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और फिल्मकारों के इंटरव्यू लिए हों, वह रिटायरमेंट की उम्र में एक झोलाछाप की तारीफ के पुल बांधती नजर आए! इसे क्या कहें? क्या मजबूरी रही होगी? मेरे जैसे आपके हजारों फैन आपसे जानना चाहेंगे?
एक चित्र आंखों के सामने उभरता है। पुरानी दिल्ली के एक पुराने मकान में चटाई पर एक बच्चा बैठा है। सामने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी है। उसकी स्क्रीन के गुलशन में फूल खिले हैं। धूप सी गोरी एक लड़की वहां बैठी है। कच्ची जवानी वाले सुतवां नैन-नक्श हैं। लाल सुर्ख नन्हे होंठ हैं। चहक-चहक कर संगीतकार हेमंत कुमार से सवाल पूछ रही है। बीच-बीच में कभी पुरानी फिल्म नागिन की फुटेज दिखाती है। पुराना गाना चलाती है, ‘जरा नजरों से कह दो जी, निशाना चूक न जाए।’ हेमंत दा के हर जवाब पर मुस्कुराहट बिखेरती है। बीच-बीच में आँखों में भोली हैरानी का भाव भरकर सुनती है। खूब हँस-हँस कर बात आगे बढ़ाती है। उसे याद रहता है कि कितनी देर बाद दर्शक बेकरार होने लगते हैं। कब उन्हें रिझाए रखने के लिए फिल्मों का कोई सीन दिखाना है। बोर से बोर जवाबों को भी लगन और मुहब्बत से सुनते रहने का सब्र वह दिखाती है। इंटरव्यू की लहरों पर तैरते-तैरते यकायक बल खाकर कोई गाना सुनवाने का संदर्भ खोज लाती है। कैसी नफासत से इंटरव्यू देने वाले की कमजोर नसों पर हाथ धरती है। कितने दबाते हुए दोष गिनाती है, कितने खुलकर तारीफ करती है। देखने वालों में कैसे कैसे निराले जज्बात जाग जाते हैं। कैसे उनके ख्वाबों को अनजान सफर पर रवाना कर देती है। कितना सच्चा तलफ्फुज है। कितनी साफ, करारी और शोख आवाज है। जैसे ही कैमरा चेहरे पर आता है, शोला सा लपक जाता है। बिलकुल शतरूपा लगती है। सौ चितवनों वाली। सौ भंगिमाओं वाली। कितनी सुंदर है। कितनी चपल है। कितनी विदुषी है. . . . बच्चा देख रहा है. . सोच रहा है. .
फिर दूसरा चित्र उभरता है। कोई 35 साल बाद का चित्र। सामने टीवी स्क्रीन है। वही तबस्सुम बैठी है। आवाज भी वही है। लेकिन पास में कोई लीजेंड नहीं है। एक गुमनाम, सांवला, अधेड़ बैठा है। मसीहाई का दावा करने वाला कोई शैतान है। वही तबस्सुम उसे खुदाई खिदमतगर साबित करने में जुटी है। उसे जन्नत से उतरा फरिश्ता बता रही है . . और देखने वालों से देखा नहीं जा रहा है। सहा नहीं जा रहा है.  .
क्या पतन है। क्या ट्रेजडी है। क्या यही होता है अर्श से फर्श पर आ पड़ना? क्या ऐसे ही लोग अपने जीवन भर के किए कराए पर पानी फेरते हैं?
लेकिन तुम दुखी मत होना तबस्सुम। तुम अकेली नहीं हो।
टीवी के एक और स्टार का जिक्र करता हूं। लोग इन्हें मूवर्स एंड शेकर्स में गिनते हैं। कुछ साल पहले तक जिस चैनल को ऑन करो, उसी पर उनका चेहरा दिखता था। बिहार की शान बन कर उभरे थे। सबकी पोल खोलते नजर आते थे। चुनाव भी लड़ा था। ये साहब पुनर्जन्म के एक सीरियल में दिखाई दिए। छोटे परदे पर इन्हें बेहोशी में अपने मरहूम बेटे का दीदार करते देखा। बड़ा दुख हुआ। क्या मजबूरी है? क्या गरीबी है कि बेटे की मौत तक को बेचना पड़ जाता है!
ऐसी हमारी हस्तियाँ हैं। ऐसे हमारे नायक हैं। पैसे के लिए कुछ भी बुलवा लो। अंधविश्वास तक पर मुहर लगवा लो। लेकिन पता नहीं, इनका कितना कसूर है। क्या बाजार ऐसे ही इंसान को इस्तेमाल कर लेता है? जरुर कुछ मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेहया नहीं होता. . . (शेर में बेवफा की जगर बेहया घुसेड़ने की हिमाकत के लिए मुझे माफ करें). . दरअसल एक तबस्सुम को, यानी एक मुस्कान को, जब सिसकी बनते देखा तो कुछ भी अंट शंट लिखे दे रहा हूं। क्या करूं, ब्लॉग का नाम ‘लव यू जिंदगी’ इसलिए रखा था कि हस्तियों को लवलेटर लिख सकूं, लेकिन न चाहते हुए भी मुहब्बत के खतों पर तल्खी हावी हो जाती है…

दैनिक हिन्दुस्तान से साभार- http://blogs.livehindustan.com/love-you-zindagi/

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